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बिगड़ गया सद्भाव / संजय पंकज
Kavita Kosh से
उबले दूध बताशे जैसा
लगता अपना गाँव!
सरसों-साग सरीखा उसका
गला हुआ बर्ताव!
रजधानी से पहुँच गई है
सुख सुविधाओं की गाड़ी
रोजगार आ गए बहुत हैं
फिर भी जनता दुखियारी
मुखिया जी मैदा—सा फफदे
फफक रही है छाँव!
सड़कों पर चलिए तो चुभते
कंकड़ कंकड़ सजे हुए
काम नहीं है बरसों का यह
परसों के ही बिछे हुए
कोढ़ चकत्ते कदम-कदम पर
पड़ी फँफूदी पाँव!
मीठे बोल मगर मतलब के
मिलने जुलने वालों के
चोरी पकड़ी गई कभी जो
हाथ मिले रखवालों के
पंचों ने अन्याय किया तो
बिगड़ गया सद्भाव!