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बिड़ाल / जीवनानंद दास

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मिलता है दिन-भर में बिड़ाल कई बार :
पेड़ के नीचे धूप में बादामी पत्तों की भीड़ में;
काँटेदार मछली के टुकड़ों को बटोरकर
दिखता है — सन्तुष्ट ।
चला जाता है फिर सादी मिट्टी के कंकाल के भीतर
देखता हूँ पड़ा रहता है निमग्न — लिए हुए
अपने को मधुमक्खियों के छत्ते-सा
फिर देखता हूँ उसे कभी गुलमोहर के तने को
पंजों से खरोंचते,
सारा दिन चलता है सूर्य के पीछे-पीछे वह ।
दिखलाई पड़ता है अभी
अभी खो जाता है जैसे कहीं ।
मैंने देखा है उसे हेमन्त की शाम में
दुलराते नरम सफ़ेद पंजों से,
सिन्दूरी सूरज को — उठाते हुए अन्धेरे को फिर
छोटी-छोटी गेन्दों की तरह अपने पंजों में दबाकर
और छितराते हुए उन्हें समस्त पृथ्वी पर ।

(यह कविता 'महापृथिवी' संग्रह से)