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बिना कुदाल उठाए / रणजीत
Kavita Kosh से
इस शैतानों की बस्ती में इन्सान का रहना मुश्किल है !
इक जुल्म तो सह भी लें लेकिन हर जुल्म को सहना मुश्किल है !
सब ओर फ़रेबों की उलझन, सब ओर भ्रमों के जाल बिछे
इस मज़हब के घनचक्कर में ईमान का रहना मुश्किल है !
होठों पे लगे हैं ताले औ’ आवाज़ बिचारी कैदी है
पूरा अफ़साना दूर यहाँ इक लफ़्ज भी कहना मुश्किल है !
विश्वास क़लम पर काफ़ी है, हथियार कारग़र है यह भी !
पर बिना कुदाल उठाए ये दीवारें ढहना मुश्किल है !