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बिसरी सर्दी / निधि सक्सेना
Kavita Kosh से
हाँ हुआ करती थी सर्दी
शरारती नटखट चंचल
हवाओं पे सवार हो कर आती
झाड़ों की फुनगियों पर बैठती
धमाचौकड़ी मचाती...
सबेरे मेड़ों पर सुस्ताती
रातों को गली गली झाँकती
अलाव जल रहे हैं कि नहीं...
अबके बरस जाने कहाँ खो गई
किसी विरहणी सी अनमनी रही
न वो आतुरता न वो हलचल
कि आ कर भी न आयी...
हमने भी तो वो जंगल काट दिए
जिनकी पुकार पर वो दौड़ी चली आती थी...
वो नदियाँ सुखा दी
जिनकी ताल पर वो मचलती थी...
वो बारिशें गुमा दी
जिनकी थाप पर वो थिरकती थी...
प्रदूषित धुएँ से डरा दिया उसे...
हाँ अब नहीं है वो सर्दी
हरसिंगार के फूल की तरह झड़ गई
ओह: मानव ! वो दरक गई
रिक्त हो गई
खोज रही है अपना अस्तित्व
तुम्हारे धुँधुअाते विप्लव में
तुम दिग्विजयी हुए
वो तिरोहित हो गई तुम पर...