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बिहारी सतसई / भाग 19 / बिहारी

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उन हरकी हँसि कै इतै इन सौंपी मुसुकाइ।
नैन मिलैं मन मिलि गए दोऊ मिलवत गाइ॥181॥

हरकी = हटकी, रोका। इतै = इध्र। मिलवत = मिलाते समय।

उन्होंने-श्रीकृष्ण ने-हँसकर मना किया (नहीं, मेरी गायों में अपनी गायें मत मिलाओ), इधर इन्होंने-श्रीराधिका ने-मुस्कुरारकर सौंप दी (लौ मेरी गौएँ, मैं तुम्हीं को सौंपता हूँ), यों गायों को मिलाते समय आँखें मिलते ही दोनों (राधा-कृष्ण) का मन भी मिल गया।


फेरू कछुक करि पौरि तैं फिरि चितई मुसुकाइ।
आई जावनु लेन तिय नेहैं गई जमाइ॥182॥

फेरु = बहाना। पौरि = दरवाजा, ड्यौढ़ी। चितई = देखा। जावनु = वह थोड़ा-सा खट्टा दही, जिसे दूध में डालकर दही जमाया जाता है।

कुछ बहाना करके दरवाजे से लौट (उसने) मुस्कुराकर (मेरी ओ) देखा। (यों) वह स्त्री आई (तो) जामन लेने, (और) गई प्रेम जमाकर- प्रेम स्थापित कर।


या अनुरागी चित्त की गति समुझै नहिं कोइ।
ज्यौं-ज्यौं बूड़ै स्याम रँग त्यौं-त्यौं उज्जल होइ॥183॥

गति = चाल। कोइ = कोई। स्याम-रँग = काला रंग, कृष्ण का रंग। उज्जल = उज्ज्वल, निर्मल।

इस प्रेमी मन की (अटपटी) चाल कोई नहीं समझता; (देखो तो) यह ज्यों-ज्यों (श्रीकृष्ण के) श्याम-रंग में डूबता है, त्यों-त्यों उजला ही होता जाता है।


होमति सुख सुरबु करि कामना तुमहिं मिलन की लाल।
ज्वालमुखी-सी जरति लखि लगनि अगिन की ज्वाल॥184॥

होमति = होम करती है, आग में डालती है। लखि = देखो। लगनि = प्रेम।

हे लाल! तुमसे मिलने की कामना करके (वह) सुख का होम (विसर्जन) कर रही है। देखो! (उसकी) प्रेमाग्नि की ज्वाला (पर्वत) के समान जल रही है। (वह ज्वाला शान्त नहीं होती, क्योंकि सुखों की आहुति तो बराबर पड़ रही है।)


मैं हो जान्यौ लोइननु जुरत बाढ़िहै जोति।
को हो जानत दीठि कौं दीठि किरकिरी होति॥185॥

मैं हो जान्यौ = मैं जानती थी। लोइननु = आँखें। को हो जानत = कौन जानता था। दीठि = नजर, दृष्टि। किरकिरी = आँख में पड़ी धूल।

मैं जानती थी कि आँखों के मिलने (लड़ने) से आँखों की ज्योति बढ़ेगी (दो के मिलने से दुगुनी ज्योति बढ़ेगी)। (किन्तु) कौन जानता था कि नजर के लिए नजर (बालू की) किरकिरी-सी होती है-उसे केवल पीड़ा ही पहुँचाती है!


जौ न जुगुति पिय-मिलन की धूरि मुकुति मुँह दीन।
जौ लहियैं सँग सजन तौ धरक नरक हूँ की न॥186॥

जुगुति = उपाय। मुकुति = मुक्ति, मोक्ष। सजन = प्रीतम, अपना प्यारा। धरक = घड़क, भय।

यदि प्रीतम से मिलने का उपाय न हो-यदि इससे प्रीतम न मिल सके-(तो) मोक्ष के मुख पर भी धूल डालो-उसे तुच्छ समझो। (और) यदि अपने प्यारे का संग पाओ, तो नरक का भी डर नहीं-प्रीतम के साथ नरक भी सुखकर है।

नोट - एक कवि ने इसी भाव पर यों मजमून बाँधा है-

प्रीतम नहीं बजार में, वहै बजार उजार।
प्रीतम मिलै उजार में, वहै उजार बजार॥


मोहूँ सौं तजि मोहु दृग चले लागि इहिं गैल।
छिनकु छवाइ छबि गुर-डरी छले छबीलै छैल॥187॥

मोहुँ सो = मुझसे भी। मोह = ममता। गैल = राह। छिनकु = एक क्षण। छ्वाइ = छुलाकर, स्पर्श कराकर। गुर-डरी = गुड़ की डली या गोली, भेली।

मुझसे भी ममता छोड़कर (मेरे) नेत्र उसी राह पर जाने लगे-उसी नायक के लिए व्याकुल रहते हैं। एक क्षण के लिए शोभा-रूपी गुड़ की गोली (इनके मुख से) छुलाकर (उस) छबीले छैल ने-सुन्दर रसिक ने-(इन्हें) छल लिया।


को जानै ह्वैहै कहा व्रज उपजी अति आगि।
मत लागै नैननु लगैं चलै न मग लगि लागि॥188॥

को = कौन। कहा = क्या। अति आगि = विचित्र अग्नि, अर्थात् प्रेम की अग्नि। लगि लागि = निकट होकर।

कौन जानता है, क्या होगा? व्रज में विचित्र आग पैदा हुई है, (वह) आँखों में लगकर हृदय में लग जाती है। अतएव तू (उस) रास्ते के निकट होकर भी न चल-उस रास्ते से दूर ही रह।


तजतु अठान न हठ पर्यौ सठमति आठौ जाम।
भयो वामु वा वाम कौं रहैं कामु बेकाम॥189॥

अठान = अनुष्ठान। सठमति = मूर्ख। जाम = पहर। बामु = विमुख। बाम = स्त्री। काम = कामदेव। बेकाम = व्यर्थ।

मूर्ख (कामदेव) आठों पहर अपना अनुष्ठान-सताने की आदत-नहीं छोड़ता-(अजीब) हठ पकड़ लिया है। वह कामदेव व्यर्थ ही उस अबला से (यों) विमुख बना रहता है-क्रुद्ध हुआ रहता है।


लई सौंह-सी सुनन की तजि मुरली धुनि आन।
किए रहति नित रात-दिन कानन लाए कान॥190॥

सौंह = शपथ, कसम। आन = दूसरा। रति = प्रीति, रुचि। किए रहति = (सुनने की) चाह लगाये रहती है। कानन = जंगल। लाए = लगाये।

मुरली की ध्वनि छोड़कर दूसरी चीज सुनने की (उसने) कसम-सी खा ली है। (वह) नित्य रात-दिन जंगल की ओर-वृन्दावन की ओर-(वंशी-ध्वनि में) कान लगाये (प्रेमोत्कंठित) रहती है।