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बिहारी सतसई / भाग 29 / बिहारी

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तूँ मोहन मन गड़ि रही गाढ़ी गड़नि गुवालि।
उठै सदा नटसाल ज्यौं सौतिनु के उर सालि॥281॥

गाढ़ि गड़नि = अच्छी तरह से, मजबूती के साथ। गुवालि = ग्वालिन। नटसाल = तीर की चोखी नोक जो टूटकर शरीर के भीतर ही रह जाती है और पीड़ा देती है। ज्यौं = समान, जैसे। सालि = कसक।

अरी ग्वालिन! तू मोहन के मन में भली भाँति गढ़ रही है-श्रीकृष्ण के हृदय में तूने अच्छी तरह घर कर लिया है। (यह देखकर) सौतिनों के हृदय में तीर की टूटी हुई नोक की पीड़ा के समान सदा कसक उठती रहती है।


बड़े कहावत आप सौं गरुवे गोपीनाथ।
तौ बदिहौं जौ राखिहौ हाथनु लखि मनु हाथ॥282॥

आपसौं = अपने को। गरुवै = भारी, प्रतिष्ठित। तौ = तब। बदिहौं = यथार्थ में समझूँगी। हाथनु = हाथों को।

प्रतिष्ठित गोपीनाथ जी! (आप) अपने को बड़े तो कहलवाते हो। किन्तु मैं बदूँगी तब-मैं यथार्थ में प्रतिष्ठित और बड़ा समझूँगी तब-जब (इस नायिका के) हाथों को देखकर (अपना) मन वश में रख लोगे-अपने को काबू में रख सकोगे।


रही दहेंड़ी ढिग धरी भरी मथनियाँ बारि।
फेरति करि उलटी रई नई विलोवनिहारि॥283॥

दहेंड़ी = दही रखने का बर्तन, कहतरी, मटकी। ढिग = निकट। मथनिया = जिसमें दही रखकर मथा जाता है, माठ, कूँड़ा। रई = जिससे दही मथा जाता है, रही, मथनी। नई बिलोवनिहारि = दही मथनेवाली नवयुवती, नई-नवेली ग्वालिन।

(दही से भरी हुई) मटकी निकट ही रक्खी रह गई और (दही मथने वाले) भाँड़ में केवल पानी भर दिया। (फिर) मथनी उलटकर (प्रीतम-श्रीकृष्ण- के ध्यान में पगली बनी हुई वह) नई दही मथनेवाली फेर (मथ) रही है-उलटी मथनी से ही भाँड़े के पानी को मथ रही है। (श्रीकृष्ण के प्रेम में बेसुध है)


कोरि जतन कीजै तऊ नागरि नेहु दुरै न।
कहैं देत चितु चीकनौ नई रुखाई नैन॥284॥

कोरि = करोड़। तऊ = तो भी। नागरि = चतुरा। दुरै न = नहीं दुरता, नहीं छिपता। चीकनौ = प्रेम। रुखाई = क्रोध।

करोड़ों यत्न करो तो भी हे सुचतुर! प्रेम नहीं छिपता। आँखों की नई रुखाई ही-कृत्रिम रुक्षता (क्रोध) ही-हृदय की चिकनाहट-(स्नेहशीलता)-कहे देती है।

नोट - प्रेम छिपाये ना छिपै जा घट परगट होय।
जो पै मुख बोलै नहीं आँख देति है रोय॥-कबीरदास


पूछैं क्यौं रूखी परति सगिबगि गई सनेह।
मनमोहन छवि पर कटी कहै कँट्यानी देह॥285॥

रूखी परति = अनखाती, कुपित होती। सगबगि गई = शराबोर हो गई, तल्लीन या मस्त हो रही। मनमोहन = श्रीकृष्ण। छबि पर कटी = रूप पर मुग्ध। कँट्यानी = कंटकित, रोमांचित।

पूछने से क्रोधित क्यों होती हो? स्नेह से तो शराबोर हो रही हो। श्रीकृष्ण के रूप पर लट्टू हुई हो, (यह बात तुम्हारी) रोमांचित देह ही कह रही है।


तूँ मति मानैं मुकुतई कियैं कपट चित कोटि।
जो गुनही तौ राखिये आँखिन माँहि अँगोटि॥286॥

मुकुतई = मुक्ति, छुटकारा। चित = मन। कोटि = करोड़ों। गुनही = गुनहगार, दोषी, अपराधी। अँगोटि = बन्द कर, कैद कर।

करोड़ों कपट मन में रखने से तू अपना छुटकारा न समझ-झूठमूठ मुझे दोषी बतलाने से मैं तेरा पिंड छोड़ दूँगा, ऐसा मत समझ। (हाँ,) यदि (सचमुच मुझे) गुनहगार समझती है, तो अपनी आँखों में मुझे कैद कर रख।

नोट- नायिका को किसी तरह नायक छोड़ना नहीं चाहता। अपने ऊपर किये गये आक्षेप या आरोप को वह पहले तो झूठ बतला रहा है, और सत्य होने पर भी सजा चाहता है-नायिका की आँखों में कैद होना! कविवर रहीम ने भी भगवान श्रीकृष्ण से कहा कि मैं नट के समान चौरासी लाख रूप बनाकर तुम्हारे निकट आया, अगर मेरे इन रूपों पर तुम प्रसन्न हो तो मुझे मनचाही (मुक्ति) दो, नहीं, कहो तो मैं इन रूपों को ही न बनाऊँ, और यों चौरासी के फेर से बचूँ। कैसी विलक्षण उक्ति है-आनीता नटवन्मया तब पुनः श्रीकृष्ण या भूमिका, व्योमाकाश खखांबराब्धि वसुवत् त्वत्प्रीतपेद्या-वधि; प्रीतस्त्वं यदि चेन्निरीक्ष्य भगवान् स्वप्रार्थितं देहि मे, नोचेदब्रूहि कदापि मानय पुनस्वेतादृशी भूमिका”-रहीम काव्य।


बाल-बेलि सूखी सुखद इहिं रूखी-रुख-घाम।
फेरि डहडही कीजियै सुरस सींचि घनस्याम॥287॥

बेलि = लता। रूखी-रुख = क्रोधभाव। घाम = रौद, धूप। डहडही = हरी-भरी। सुरस = (1) सुन्दर प्रेम (2) सुन्दर जल। घनस्याम = (1) श्रीकृष्ण (2) श्यामल मेघ।

इस क्रोध-भाव-रूपी घाम से (वह) सुख देनेवाली बाला-रूपी लता सूख गई है। (अतएव) हे घनश्याम! सुन्दर (प्रेम-रूपी) जल से सींचकर इसे पुनः हरी-भरी कर दीजिए।


हरि हरि बरि बरि उठति है करि करि थकी उपाइ।
वाकौ जुरु बलि बैदजू तो रस जाइ तु जाइ॥288॥

बरि-बरि = जल-जलकर। वाको = उसको। जुरु = ज्वर, बुखार। बलि = बलैया लेना। रस = (1) मकरध्वज आदि रासायनिक औषधि (2) प्रेम, मिलन-जनित आनन्द।

हे हरि! (विरह-ज्वाला में) जल-जल (वह) उठती है। (मैं) उपाय कर-करके थक गई। हे बैद्य महाराज, मैं बलैया लेती हूँ, उसका (विरह-रूपी) ज्वर आपके ‘रस’ (औषध) से जाय तो जाय (नहीं तो कोई दूसरा उपाय नहीं।)


तूँ रहि हौं ही सखि लखौं चढ़ि न अटा वलि बाल।
सबही विनु ससि ही उदै दीजतु अरघु अकाल॥289॥

हौं = मैं। अटा = अटारी, कोठा। बलि = बलैया लेना। बाल = बाला, नायिका। अरघु = अर्घ्य। अकाल = असमय, बेवक्त।

सखि! तू रह, मैं ही देखती हूँ। बाले! मैं बलैया लेती हूँ, तू कोठ पर न चढ़। (नहीं तो कोठे पर तुम्हारा मुख देख उसे चन्द्रमा समझ) सभी बिना चन्द्रमा के उदय हुए ही, असमय में ही, अर्घ्य देने लगेंगे।

नोट - इसी भाव का एक श्लोक महाकवि कालिदास के शृंगारतिलक में है, जिसमें चंद्रानना नायिका को ग्रहण-काल में झटपट घर में घुसने को कहा गया है। कारण, कहीं उसे पूर्णचन्द्र समझकर राहु ग्रस न ले-झटिति प्रविश गेहे मा बहिस्तिष्ठ कान्ते, ग्रहणसमय बेला वर्त्तते शीतरश्मेः; तब मुखमकलंकं वीक्ष्य नूनं स राहुः; ग्रसति तव मुखेन्दुं पूर्णचन्द्रं विहाय।


दियौ अरघु नीचौं चलौ संकटु भानैं जाइ।
सुचिती ह्वै औरौ सबै ससिहिं बिलोकैं आइ॥290॥

संकटु = संकट-चतुर्थी का व्रत। भानैं = तोड़ें। सुचिती ह्वै = सुचित (स्थिरचित्त) होकर, द्विघा को छोड़कर। ससिहिं = चन्द्रमा को। बिलोकैं = देखें।

अर्घ्य दे चुकी, (अब) नीचे चलो। चलकर संकट चौथ का व्रत तोड़ें- संकट-चतुर्थी के व्रत का पारण करें। (ताकि) अन्य सब (स्त्रियाँ) भी सुचित होकर-दुबिधा छोड़कर-चन्द्रमा को आकर देखें!
(क्योंकि कोटे पर) रहने से तुम्हारे मुखचन्द्र को देखकर सब भ्रम में पड़ जाती हैं कि इस चौथ को यह पूर्णचन्द्र कहाँ से आया!)