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बिहारी सतसई / भाग 34 / बिहारी

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तनक झूँठ नसवादिली कौन बात परि जाइ।
तिय मुख रति-आरम्भ की नहिं झूठियै मिठाइ॥331॥

तनक = थोड़ा। नसवादिली = निस्वादु, बेमजा। तिय = स्त्री। रति = समागम, सम्भोग। मिठाइ = मीठी लगती है। झूठियै = झूठी भी।

”थोड़ा झूठ भी बेमजा है“-(इस) बात पर कौन जाय-कौन भूले। स्त्री के मुख से समागम के आरम्भ में (निकली हुई) ‘नहीं’ झूठी भी मीठी लगती है।

नोट - दुलहिन की ‘नाहीं’ पर कविवर दूलह कहते हैं-धरी जब बाहीं तब करी तुम नाहीं पाय दियो पलँगाही नाहीं-नाहीं कै सुहाई हौ। बोलत में नाहीं, पट खोलत में नाहीं, ‘कवि दूलह’ उछाहीं लाख भाँतिन लखाई हौ॥ चुम्बन में नाहीं, परिरंभन में नाहीं, सब हासन विलासन में नाहीं ठकीठाई हौ। मेलि गलबाहीं केलि कीन्हीं चितचाहीं, यह ‘हाँ’ ते भली ‘नाहीं’ सो कहाँ ते सीख आई हौ?“


भौंहनु त्रासति मुँह नटति आँखिनु सौं लपटाति।
ऐंचि छुड़ावति करु इँची आगैं आवति जाति॥332॥

त्रासति = डरवाती है। नटति = नहीं-नहीं (इनकार) करती है। ऐंचि = खींचकर। इँची = खिंचती। आगे आवति जाति = सामने वा पास चली आती है।

भौंहों से डरवाती है-भौंहें टेढ़ी कर क्रोध प्रकट करती है। मुख से ‘नहीं-नहीं’ करती है। आँखों से लिपटती है-प्रेम प्रकट करती है (और) खींचकर (अपना) हाथ (मेरे हाथ से) छुड़ाती हुई भी (वह स्वयं) खिंचती हुई आगे ही आती-जाती है-यद्यपि वह बाँह छुड़ाकर भागने का बहाना करती है, तो भी मेरी ओर बढ़ती आती है।


दीप उजेरैं हू पतिहिं हरत बसनु रति काज।
रही लिपटि छबि की छटनु नेकौं छुटी न लाज॥333॥

उजेरै हू = उजाले में भी। बसनु = वस्त्र, साड़ी। रति-काज = सहवास (समागम) के लिए। छटनु = छटा से। नेकौं = जरा भी।

दीपक के उजाले में भी समागम के लिए पति उसके वस्त्र हरण कर रहा है-शरीर से कपड़े हटा रहा है। किन्तु, सौंदर्य की छटा से-शरीर भी शोभा-जनित आभा से लिपटी रहने के कारण उसकी लाज जरा भी न छुटी (यद्यपि वस्त्र हटा दिया गया, तो भी उसके शरीर की द्युति में नायक की आँखें चौंधिया गईं, जिससे उसे नग्नता की लाज न उठानी पड़ी!)


लखि दौरत पिय-कर-कटकु बास छुड़ावन काज।
बरुनी बन गाढ़ैं दृगनु रही गुए़ौ करि लाज॥334॥

कर = हाथ। कटकु = सेना। बास = (1) वस्त्र (2) निवास-स्थान। बरुनी = पलक के बाल। गाढ़ैं = सघन। दृगनु = आँखों। गुढ़ौ करि = किला बनाकर।

वस्त्र (रूपी निवास-स्थान या देश) छुड़ाने के लिए प्रीतम के हाथ-रूपी सेना को दौड़ते (ताबड़तोड़ वस्त्रहरण करते) देखकर (नायिका की) लज्जा बरुनी-रूपी सघन वन में (बने हुए) आँखों को किला बनाकर छिप रही-(समूचे शरीर से सिमटकर लाज आँखों में आ छिपी!)

नोट -अत्यन्त लज्जा से स्त्रियाँ आँखें बन्द कर लेती हैं। जबरदस्ती नग्न किये जाने पर स्वभावतः उनकी आँखें बन्द हो जाती हैं।


सकुचि सरकि पिय निकट तैं मुलकि कछुक तनु तोरि।
कर आँचर की ओट करि जमुहानी मुँह मोरि॥335॥

सकुचि = लजाकर। सरकि = सरककर, हटकर। मुलकि = मुस्कुराकर। तनु तोरि = अँगड़ाई लेकर। कर = हाथ। जमुहानी = जँभाई ली, देह को ऐंठा। मुख मोरि = मुँह फेरकर।

(समागम के बाद) लजाकर प्रीतम के निकट से कुछ दूर हट, अँगड़ाई लेकर कुछ मुस्कुराई तथा हाथ और आँचल की ओट कर, मुख फेरके जँमाई ली।


सकुच सुरत आरंभ हीं बिछुरी लाज लजाइ।
ढरकि ढार ढुरि ढिग भई ढीठि ढिठाई आइ॥336॥

सकुच = (1) सकुचाकर (2) कुच-सहित। ढरकि = ढरककर, खिसककर। ढार ढुरि = अनुकूल या प्रसन्न हो।

(1) सकुचाकर समागम के आरम्भ में ही (वह नायिका) लाज से लजाकर दूर हट गई; किन्तु ढीठ ढिठाई के आने पर वह सहर्ष खिसककर निकट आ गई- (पहले लज्जावश अलग हट गई; पर जब ढिठाई ने उत्साहित किया, तब पास चली आई)। अथवा (2) कुच स्पर्श के साथ समागम के आरम्भ होते ही लज्जा (बेचारी) लजाकर दूर हो गई (लाज जाती रही) और धृष्ट घृष्टता खिसककर, प्रसन्न हो, निकट आकर उपस्थित हुई- (लजीली लाज भगी और शोख ढिठाई सामने आई)।


पति रति की बतियाँ कहीं सखी लखी मुसकाइ।
कै कै सबै टलाटली अली चलीं सुख पाइ॥337॥

रति = समागम। लखी = देखी। टलाटली = टालमटूल, बहाना। अली = सखियाँ। सुख पाइ = सुखी (प्रसन्न) होकर।

पति ने (इशारे से) रति की बातें कहीं, (इस पर नायिका ने) सखियों की ओर मुस्कुराकर देखा। (मर्म समझकर) सब सखियाँ टालमटूल कर-करके प्रसन्न हो (वहाँ से) चल दीं।


चमक तमक हाँसी ससक मसक झपट लपटानि।
ए जिहि रति सो रति मुकुति और मुकुति अति हानि॥338॥

चमकना और तमकना-कभी चिहुँक उठना और कभी क्रोधित हो जाना, हँसना और सिसकना-कभी मजा पाने पर हँस पड़ना और कभी जोर पड़ने पर कष्ट से सी-सी करना; मसकना और झपटकर लिपटना-शरीर के मर्दित किये जाने पर बार-बार गले से लिपट जाना; ये सब भावभंगियाँ जिस समागम में हों, वही समागम (वास्तव में) मोक्ष है (मोक्ष-तुल्य आनन्दप्रद है), और प्रकार के मोक्ष में तो अत्यन्त हानि (बड़ा घाटा) है।

नोट - बिहारी ने इसमें समागम समय की पूरी तस्वीर तो खींच ही दी है, साथ ही शब्द-संगठन ऐसा रक्खा है कि यह योगियों के ब्रह्मानन्द पर भी पूर्ण रूप से घटता है। योगी भी ब्रह्मानन्द में मस्त हो कभी चौंक उठते हैं, कभी उत्तेजित हो जाते हैं, कभी हँस पड़ते हैं, कभी रो पड़ते हैं और कभी भाव-विह्वलता के कारण झपटकर (ध्यानास्थ इष्टदेव) से लिपटने की चेष्टा करते हैं। वही परमानन्दमय ‘कैवल्य-परमपद’ वास्तविक मोक्ष है, अन्य प्रकार के मोक्ष व्यर्थ हैं।


जदपि नाहिं नाहीं नहीं बदन लगी जक जाति।
तदपि मौंह हाँसी-भरिनु हाँ सीयै ठहराति॥339॥

वदन = मुख। जक = रटन, आदत। हाँसी भरिनु भौंह = प्रसन्न भौंह, आनन्दद्योतक भौंह। हाँ सीयै = हाँ के समान ही। ठहराति = जान पड़ती है।

यद्यपि (नायिका के) मुख में ‘नहीं-नहीं-नहीं’ की ही रट लग जाती है- वह सदा ‘नहीं-नहीं’ (इनकार) ही करती जाती है, तथापि हँसी-भरी हुई (विकसित) भौंहों के कारण (‘नहीं-नहीं’ भी) ‘हाँ’ के समान ही जान पड़ती है- ‘हाँ’ के समान ही सुखदायक मालूम होती है।


पर्‌यौ जोरु बिपरीत-रति रुपी सुरति रनधीर।
करत कुलाहलु किंकिनी गह्यौ मौनु मंजीर॥340॥

बिपरीत रति = (समागम काल में) नायक नीचे और नायिका ऊपर। रुपी = पैर रोपे (जमाये हुई है, डटी है। सुरति = समागम। रन = युद्ध। किंकिनी = कमर में पहनने का एक घुँघरूदार आभूषण, करघनी। मौन गह्यो = मौनावलम्बन, चुप साधे रहना। मंजीर = पाँवों में पहनने का एक रुनझुनकारी गहना, नूपुर।

विपरीत रति में खूब जोर पड़ रहा है-जोरों के साथ विपरीत रति जारी है। वह धीरा समागम-रूपी युद्ध में डटी है। (अतएव, कमर की) किंकिणी शोर कर रही है, और (पाँवों के) नूपुर मौन पकड़े हुए (चुप) हैं।

नोट - विपरीत-रति में नायिका की कटि-चंचल (क्रियाशील) है, इसलिए किंकिणी बज रही है, और पैर (जमे हुए) स्थिर हैं, इसलिए नूपुर चुप हैं।