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बिहारी सतसई / भाग 35 / बिहारी

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बिनती रति बिपरीत को करो परसि पिय पाइ।
हँसि अनबोलैं ही दियौ ऊतरु दियौ बुताइ॥341॥

परसि = स्पर्श कर, छूकर। प्रिय = प्रीतम। पाइ = पैर। अनबोलैं ही = बिना कुछ कहे ही। ऊतरु दियो = जवाब दिया। दियौ बुताइ = दीपक बुझाकर।

प्रीतम ने (नायिका के) पैर छूकर विपरीत रति के लिए विनती की। (इस पर नायिका ने) बिना कुछ मुँह से बोले ही (केवल) हँसकर दीपक बुझाकर उत्तर दे दिया (कि मैं तैयार हूँ, लीजिए-चिराग भी गुल हुआ!)


मेरे बूझत बात तूँ कत बहरावति वाल।
जग जानी बिपरीत रति लखि बिंदुली पिय भाल॥342॥

कत = क्यों। बहरावति = बहलाती है, चकमा देती है। जग जानी = दुनिया जान गई। बिंदुली = टिकुली, चमकी या सितारा।

मेरे पूछने पर अरी बाला! तू क्यों चकमा देती है? प्रीतम के ललाट में (तेरी) टिकुली देखकर संसार जान गया कि (तुम दोनों ने) विपरीत रति की है।

नोट - विपरीत रति में ऊपर रहने के कारण नायिका की टिकुली गिरकर नीचे पड़े हुए नायक के ललाट पर सट गई।


राधा हरि हरि राधिका बनि आए संकेत।
दम्पति रति-बिपरीत-सुखु सहज सुरत हूँ लेत॥343॥

बनि आए = बनकर आये, रूप धरकर आये। संकेत = गुप्त मिलन का पूर्व-निश्चित स्थान। दम्पति = स्त्री पुरुष दोनों, संयुक्त। सहज = स्वाभाविक। सुरत = समागम। हूँ = भी।

गुप्त मिलन के स्थान पर राधा कृष्ण का (राधा धरकर आई) और कृष्ण राधा का रूप धरकर आये (अतएव, इस रूप-बदलौअल के कारण) स्वाभाविक समागम में दम्पति (राधा और कृष्ण-दोनों) विपरीत रति का सुख ले रहे हैं।

नोट - कृष्ण के वेष में राधा ऊपर और राधा के वेश में कृष्ण नीचे हैं। परिवर्तित रूप के अनुसार तो स्वाभाविक रति हे। पर वास्तव में विपरीत रति ही है।


रमन कह्यो हठि रमनि कौं रति बिपरीत बिलास।
चितई करि लोचन सतर सलज सरोस सहास॥344॥

सतर = तिरछी। सलज = लज्जा-सहित, लजीली। सरोस = क्रोध सहित, रोषीली, लाल। सहास = हास-युक्त, हँसीली, प्रफुल्ल।

(रमने) कहा। (इस पर राधा ने) अपनी आँखों को तिरछी, लजीली, रोसीली और हँसीली बनाकर (श्रीकृष्ण) की ओर देखा।


रँगी सुरत-रँग पिय-हियै लगी जगी सब राति।
पैंड़-पैंड़ पर ठठुकि कै ऐंड़-भरी ऐंड़ाति॥345॥

सुरत = समागम, रति। हियैं लगी = हृदय से सटी हुई। पैंड़-पैंड़ = पग-पग पर। ठठुकि कै = ठिठककर, रुक-रुककर। ऐंड़-भरी = सौभाग्य-गर्व से भरी। ऐंड़ति = अँगड़ाई लेती है, देह ऐंठती है।

समागम के रँग में रँगी, प्रीतम के हृदय से लगी सारी रात जगी है। (अतएव, दिन में आलस के मारे) पग-पग पर ठिठक-ठिठककर गर्व से अँगड़ाई ले रही है।


लहि रति-सुखु लगियै हियै लखी लजौंही नीठि।
खुलत न मो मन बँधि रही वहै अधखुली डीठि॥346॥

 रति-सुख = समागम का सुख। हियैं = हृदय में। लजौंही = लजीली। नीठि = मुश्किल से। मो = मेरे। मन बँधि रही = मन में बस रही है।

समागम का सुख पाकर हृदय से लग गई और लजीली (आँखों से) मुश्किल से (मेरी ओर) देखा। उस समय की उसकी वह अधखुली नजर मेरे मन से बँध रही है, खुलती नहीं-उसका वह लजीली और अधखुली नजरों से देखना मुझे नहीं भूलता।


करु उठाइ घूँघटु करत उझरत पट गुझरौट।
सुख मोटैं लूटीं ललन लखि ललना की लौट॥347॥

उझरत = सरक जाने से। पट गुझरौट = सिकुड़ा हुआ वस्त्र। मोटैं = गठरियाँ। ललन = नायक। ललना = नायिका। लौट = अदा से घूम जाना।

हाथ उठाकर घूँघट करते समय सिकुड़े हुए कपड़ों के सरक जाने से नायिका का (नायक से लजाकर) घूम जाना देखकर नायक ने सुख की मोटरियाँ लूटीं- (सुख का खजाना पा लिया)।


हँसि ओठनु बिच कर उचै कियै निचौंहै नैन।
खरैं अरैं पिय कैं प्रिया लगी बिरी मुख दैन॥348॥

उचै = ऊँचा कर। निचौंहे = नीचे की ओर। खरे = अत्यन्त। अरे = हठ किये (अड़े) हुए। बिरी = पान का बीड़ा। दैन लगी = देने लगी।

(प्रीतम ने प्यारी के हाथों से पान खाने का हठ किया, इस पर) ओठों के बीच में हँसकर-कुछ मुस्कुराकर-हाथ ऊँचा कर और आँखें नीची किये प्यारी अत्यन्त हठ किये हुए प्रीतम के मुख में पान का बीड़ा देने लगी।


नाक मोरि नाहीं ककै नारि निहौरैं लेइ।
छुवत ओंठ बिय आँगुरिनु बिरी बदन प्यौ देइ॥349॥

नाक मोरि = नाक सिकोड़कर। ककै = करके। नारि = स्त्री, नायिका। निहोरे = आग्रह या अनुनय-विनय करने पर। बिय = दोनों। बिरी = पान का बीड़ा। बदन = मुख। प्यौ = प्रीतम, नायक।

नाक सिकोड़कर नहीं-नहीं करके नायिका निहोरा करने पर (बीड़ा) लेती है, और नायक अँगुलियों से दोनों ओठ छूते हुए नायिका के मुख में पान का बीड़ा देता है।

नोट - दोनों नजाकत से भरे हैं। नायिका लेते समय नहीं-नहीं करती है, तो नायक देते समय उसके कोमल गुलाबी होठों को ही छू लेता है।


सरस सुमिल चित तुरँग की करि-करि अमित उठान।
गोइ निबाहैं जीतियै प्रेम-खेलि चौगान॥350॥

सरस = ‘प्रेम’ के अर्थ में ‘रसयुक्त’ और ‘घोड़े’ के अर्थ में ‘पुष्ट’। सुमिल = (1) मिलनसार (2) जो सवार के इच्छानुसार दौड़े। अमित = अनेक। उठान = घावा। गोइ निबाहैं = (1) छिपाकर निबाहने से (2) छिपाकर ‘गोल’ (लक्ष्य) तक ले जाने से। चौगान खेल = घोड़े पर चढ़कर गेंद खेलना।

रसयुक्त (पुष्ट) और मिलनसार चित्त-रूपी घोड़े के अनेक अनेक धावे कर-करके छिपा-छिपाकर निर्वाह करने (‘गोल’ लक्ष्य तक ले जाने) से ही प्रेमरूपी चौगान के खेल में जीत सकोगे।