बिहारी सतसई / भाग 45 / बिहारी
हा हा बदनु उघारि दृग सुफल करैं सबु कोइ।
रोज सरोजनु के परै हँसी ससी की होइ॥441॥
बदन उघारि = घूँघट उठा दो। रोज परै = रोना पड़े। हँसी = निंदा।
अहाहा! जरा अपना मुख उधार दो, ताकि सब कोई नेत्र सफल कर लें, कमलों को रोना पड़े, और चन्द्रमा की हँसी हो।
गहिली गरबु न कीजिये समै सुहागहिं पाइ।
जिय की जीवनि जेठ सो माह न छाँह सुहाइ॥442॥
गहिली = (सं. ग्रहिली) पगली। माह = माघ। छाँह = छाया।
अरी बावली! यह जवानी का समय और प्रीतम के प्रेम का सौभाग्य पाकर अभिमान न कर। देख, जो जेठ (जवानी) में प्राणों का प्राण है, वही छाया (स्त्री) माघ में (जवानी ढलने पर) नहीं सुहाती-अच्छी नहीं लगती।
कहा लेहुगे खेल पैं तजौ अटपटी बात।
नैकु हँसौंद्दी हैं भई भौंहैं सौंहैं खात॥443॥
कहा = क्या। लेहुगे = लोगे, पाओगे। खेल पैं = विनोद से। अटपटी = बे-सिर-पैर की। हँसौंही = हँसीली। सौंहैं = सौगन्द।
इस खेल में क्या पा जाओगे? अटपटी बातों को छोड़ो। कितनी सौगन्दें खाने पर इसकी भौंहैं जरा हँसीली हुई हैं-तुम्हारी निर्दोषिता के विषय में कितनी सौगन्दें खाकर मैंने इसे कुछ-कुछ मनाया है। (फिर अंटसंट बोलकर इसे क्यों चिढ़ा रहे हो?)
सकुचि न रहियै स्याम सुनि ए सतरौहैं बैन।
देत रचौंहैं चित कहे नेह नचौंहैं नैन॥444॥
सकुचि = संकोच करके। सतरौंहैं = क्रोधपूर्ण। बैन = वचन। रचौंहैं = प्रेम में शराबोर, राँचे हुए। नचौहैं = नाचते हुए चंचल।
इन क्रोधपूर्ण बातों को सुनकर, हे श्याम, संकोच करके न रह जाइए। उसकी प्रेम से चंचल हुए नेत्र देखकर प्रकट होता है कि उसका हृदय प्रेम से शराबोर है।
चलौ चलैं छुटि जाइगौ हठु रावरैं सँकोच।
खरे चढ़ाए हे ति अब आए लोचन लोच॥445॥
चलैं = चलने पर। रावरैं = आपके, तुम्हारे । सँकोच = मुरौवत, मुलाहजा, लिहाज। खरे चढ़ाए = खूब चढ़े हुए, क्रुद्ध।
चलो, चलने पर तुम्हारे संकोच में पड़कर उसका हठ (मान) छूट जायगा-वह मान जायगी, क्योंकि जो नेत्र तब खूब चढ़े हुए (क्रुद्ध) थे, उनमें अब लोच (कोमलता) आ गई है-उसकी चढ़ी हुई आँखें अब नम्र हो गई हैं।
अनरस हूँ रस पाइयतु रसिक रसीली पास।
जैसे साँठे की कठिन गाँठ्यौ भरी मिठास॥446॥
साँठे = ऊँख, ईख। गाँठ्यौ = गाँठ (गिरह) में भी।
ऐ रसिया! रसीली (नायिका) के पास अनरस (क्रोध और मान) में भी रस (आनंद) मिलता है, जिस प्रकार ऊख की कठिन गाँठ में मिठास भी भरी हुई रहती है।
क्यौंहूँ सह मात न लगै थाके भेद उपाइ।
हठ दृढ़-गढ़ गढ़वै सु चलि लीजै सुरँग लगाइ॥447॥
सह = (1) शह = शतरंज की एक चाल, जिससे शाह की मात होती है। ()()()
(2) युक्ति। मात न लगे = (1) मात (परास्त) नहीं होती (2.)नहीं मानती। गढ़वै = किलेदार, गढ़पति। सुरँग = (1) जमान के अन्दर-ही-अंदर खोदकर बना हुआ बन्द रास्ता। (2) सुन्दर प्रेम। कहीं-कहीं ‘सह मात’ के स्थान पर ‘सह बात’ भी पाठ है, जिसका अर्थ है ‘मेल की बातचीत।’
किसी प्रकार शह देने से भी मात नहीं होती-किसी भी युक्ति से नहीं मानती। भेद (फूट) के सारे उपाय थक गये-मैं समझा बुझा (फोढ़) कर हार गई। (अतएव) अब आप ही चलकर उस हठ-रूपी दृढ़ गढ़ की किलेदारिन को सुरंग लगाकर-सुन्दर प्रेम जताकर-(जीत) लीजिए।
वाही निसि तैं ना मिटौ मान कलह कौ मूल।
भलें पधारैं पाहुने ह्वै गुड़हर कौ फूल॥448॥
कलह = झगड़ा। मूल = जड़। पाहुने = अतिथि, मेहमान। गुड़हर कौ फूल = अड़हुल का फूल।
हे झगड़े का मूल मान! तुम उसी रात से नहीं मिटे-उस रात से अबतक तुम वर्त्तमान हो। ऐ पाहुने! अड़हुल का फूल होकर तुम अच्छे आये!
नोट - भाव यह है कि मान कभी-कभी पाहुने की तरह आता और कुछ काल तक ठहरता है और, स्त्रियों का विश्वास है कि जिस घर में अड़हुल का फूल होगा, वहाँ स्त्री-पुरुष में न पटेगी। इसलिए यहाँ ‘पाहुन’ और ‘अड़हुल का फूल’ कहा है।
आए आपु भली करो मेटन मान-मरोर।
दूरि करौ यह देखिहै छला छिगुनिया छार॥449॥
छला = अँगूठी। छिगुनिया = कनिष्ठा अँगुली। छोर = अन्त।
मान का मरोड़ (ऐंठ) मेंटने को-समझा-बुझाकर (इस नायिका को) मनाने के लिए-आये, सो तो आपने अच्छा ही किया। किन्तु छिगुनी के छोर में पहनी गई इस अँगूठी को-(जो निस्संदेह किसी अन्य युवती की है, क्योंकि छोटी-पतली उँगलियों में पहनी जानेवाली-होने के कारण आपकी अँगुली के छोर पर ही अटकी हुई है)-दूर कीजिये, (नहीं तो) वह देख लेगी (तो फिर मनाना कठिन हो जायगा!)
हम हारीं कै कै हहा पाइनु पार्यौ प्यौऽरु।
लेहु कहा अजहूँ किए तेह तरेर्यौ त्यौरु॥450॥
कै कै हहा = हाय-हाय या दौड़-धूप और कोशिश पैरवी करके। पार्यौ = डाल दिया। प्यौऽरु = प्यौ+अरु = अरु प्यौ = और प्रीतम को। अजहूँ = अब भी, इतनेपर भी। तेह तरेर्यौ त्यौरु = क्रोध से त्योरियाँ चढ़ाये।
हाय-हाय करके मैं हार गई, और प्रीतम को भी तुम्हारे पैरों पर लाकर ढाल (गिरा) दिया- (मैं भी समझा‘-बुझाकर थक गई और नायक भी मेरे कहने से तुम्हारे पैरों पड़ा)-इतने पर भी क्रोध से त्योरियाँ चढ़ाकर क्या पाओगी?