बिहारी सतसई / भाग 49 / बिहारी
अजौं न आए सहज रँग बिरह-दूबरैं गात।
अबहीं कहा चलाइयतु ललन चलनु की बात॥481॥
अजौं = अभी तक। सहज = स्वाभाविक। रँग = कान्ति, छटा।
विरह से दुबली हुई (नायिका की) देह में अबतक स्वाभाविक कान्ति भी नहीं आई है, (फिर) हे ललन, (परदेश) चलने की बात अभी क्यों चला रहे हैं?
ललन चलनु सुनि पलनु में अँसुवा झलके आइ।
भई लखाइ न सखिनु हूँ झूठैं हीं जमुहाइ॥482॥
पलनु में = पलकों (आँखों) में। अँसुबा आइ झलके = चमकीले आँसू छलक आये। लखाइ न भई = मालूम नहीं हुई।
प्रीतम के परदेश चलने की बात सुनकर पलकों में आँसू आ झलके-आँखें डबडबा आईं। किन्तु नायिका के झूठी जम्हाई लेने के कारण (पास की) सखियों को भी (यथार्थ बात) नहीं मालूम हुई-(सखियों ने समझा कि ये आँसू अँगड़ाई लेने के कारण निकल आये हैं!)
चाह-भरीं अति रस-भरीं बिरह-भरीं सब बात।
कोरि सँदेसे दुहुँनु के चले पौरि लौं जात॥483॥
चाह = प्रेम। पौरि = दरवाजा, देवढ़ी। लौं = तक।
(नायक के परदेश चलने के समय नायक और नायिका-दोनों-की) सभी बातें प्रेमपूर्ण, अत्यन्त रसीली और विरह से भरी थीं। यों दरवाजे (देवढ़ी) तक जाते-जाते दोनों के (परस्पर) करोड़ों सन्देश आये-गये। (प्रेम, रस और विरह से भरी बातें होती चली गईं।)
मिलि-चलि चलि-मिलि मिलि चलत आँगन अथयौ भानु।
भयौ महूरत भोर कौ पौरिहिं प्रथम मिलानु॥484॥
अथयौ = डूब गया। भानु = सूर्य। महूरत = शुभ समय, यात्रा का समय। भोर = तड़कै, प्रातः। पौरिहिं = दरवाजा। मिलानु = मुकाम, डेरा।
मिल-मिलकर, चल-चलकर पुनः मिलकर फिर चलते हैं (यों इस मिलने-चलने में) आँगन ही में सूर्य डूब गया-प्रातःकाल ही का यात्रा-समय होने पर भी दरवाजें में ही पहला मुकाम हुआ-यद्यपि भोर ही यात्रा करने चले, तो भी इस मिलने-मिलाने से संध्या होने के कारण दरवाजे पर ही पहला डेरा जमाना पड़ा।
दुसह बिरह दारुन दसा रह्यौ न और उपाइ।
जात-जात जौ राखियतु प्यौ कौ नाउँ सुनाइ॥485॥
दुसह = असह्य। दारुन = भयंकर। और = अन्य। जात-जात = जाते-जाते, गमनोन्मुख। ज्यौ = प्राण। प्रिय = प्रीतम।
विरह असह्य है, अवस्था भयंकर है। (इस दशा से छुटकारा दिलाने का) कोई अन्य उपाय नहीं रह गया। प्रीतम का नाम सुना-सुनाकर ही उसके गमनोन्मुख प्राणों की रक्षा की जाती है।
पजर्यौ आगि बियोग की बह्यौ बिलोचन नीर।
आठौं जाम हियौ रहै उड़îौ उसास-समीर॥486॥
पजरयौ = पजरना, प्रज्वलित होना। बिलोचन = आँखों से। जाम = पहर। उसास = लम्बी साँस, शोकोच्छ्वास। समीर = पवन।
विरह की आग प्रज्वलित हो गई है, आँखों से आँसू बह रहे हैं-आँसुओं की झड़ी लग गई है-और हृदय में आठो पहर उच्छ्वास का पवन (बवंडर) उठ रहा है। (यों वह अबला एक ही साथ जल भी रही है, डूब भी रही है और बवंडर में उड़ भी रही है!)
नोट - विधवाओं की दशा पर एक ने लिखा है-”आह की अगिन में तड़पती है जलती है, लांछन की लहरी डुबोती प्राण लेती है। बिरह-बवंडर में व्याकुल बनी है बाला, आह री नियति! यह कैसी तेरी चित्रशाला!“
पलनु प्रगटि बरुनीनु बढ़ि छिनु कपोल ठहरात।
अँसुवा परि छतिया छिनकु छनछनाइ छिपि जात॥487॥
पलनु = पलकें, आँखों में। बरुनीनु = पपनी या पलक के बालों में। कपोल =गाल। छिनकु = छिन+एकु = एक क्षण। छिपि जात = लुप्त हो जाते हैं।
पलकों में प्रकट होते हैं-पलक ही उनकी जन्मभूमि है, बरुनियों में बढ़ते हैं-बरुनी ही उनकी क्रीड़ाभूमि है, (और वहाँ से बढ़कर) क्षण-भर के लिए (चिकने) गालों पर ठहरते हैं-यों गाल उनकी प्रवास-भूमि या कर्म-भूमि हैं। फिर आँसू (उस नायिका की विरह-विदग्ध) छाती पर पड़ एक ही क्षण में छनछनाकर लुप्त हो जाते हैं-अतएव छाती ही उनकी श्मशानभूमि हुई!
नोट - बिहारी ने इस एक ही दोहे में आँसुओं के बहाने मनुष्यों के जीवन की एक तस्वीर-सी खींच दी है। जन्म, बचपन, प्रवास या कर्म-साधना और मृत्यु-ये चार ही मनुष्य-जीवन के खेल हैं। उर्दू-कवि अकबर ने भी एक ही शेर में वर्त्तमान शिक्षितों के जीवन की बड़ी ही अच्छी तस्वीर खींची है-”हम क्या कहें अकबर की क्या कारे-नुमायाँ कर गये। बी.ए. हुए, डिपटी बने, पेन्शन मिली, फिर मर गये।“
करि राख्यौ निरधारु यह मैं लखि नारी-ज्ञानु।
वहै बैंदु ओषधि वहै वहई जु रोग-निदानु॥488॥
निरधारु = निश्चय। नारी-ज्ञानु = (1) नाड़ी का ज्ञान (2) स्त्री की चेष्टा। बैंदु = वैद्य। निदान = उपचार, व्यवस्था।
मैंने नाड़ी का ज्ञान देखकर (इस नारी की चेष्टा देखकर) यह निश्चय कर रक्खा है कि वही वैद्य है, वही औषध है, और जो रोग है वही निदान भी है। (प्रेम की बीमारी है, प्रेम ही उपचार है, प्रेम ही वैद्य बनेगा, और दवा भी प्रेम ही की होगी।)
नोट - इस दोहे में भी बिहारी ने वैद्यक के सभी उपकरणों का अच्छा विवरण दिया है। रोग, निदान, औषध और वैद्य-बस ये चार ही वैद्यक के उपकरण-साधन हैं। प्रेम की बीमारी पर कबीरदास कहते हैं-”कबिरा बैंद बुलाइया पकड़के देखी बाँह। बैद न बेदन जानई कसक कलेजे माह॥ जाहु बैद घर आपने तेरा किया न होय। जिन यह बेदन निर्मई भला करेगा सोय॥“ कैसे अनूठे दोहे हैं!
मरिबै कौ साहसु ककै बढ़ै बिरह की पीर।
दौरति ह्वै समुहैं ससी सरसिज सुरभि-समीर॥489॥
मरिबे कौ = मरने का। ककै = करके। समुहैं = सम्मुख। ससी = शशि = चन्द्रमा। सरसिज = कमल। मुरभि-समीर = सुगंधित पवन।
विरह की पीड़ा बढ़ने पर मरने का साहस करके (वह उन्मादिन बाला) चन्द्रमा, कमल और पवन के सम्मुख होकर दौड़ती है। (यद्यपि चन्द्रमा, कमल और पवन शीतलता देने वाले हैं, तथापि विरह में उसे अत्यन्त तापपूर्ण जान पड़ते हैं, जिससे वह उनके सम्मुख दौड़ती है कि वे मुझे जला डालें।)
ध्यान आनि ढिग प्रानपति रहति मुदित दिन-राति।
पलकु कँपति पुलकति पलकु पलकु पसीजति जाति॥490॥
आनि = लाकर। ढिग = निकट। मुदित = प्रसन्न। पलकु = पल+एकु = एक पल या क्षण में।
(परदेश गये हुए) प्राणपति को ध्यान-द्वारा निकट लाकर-ध्यान में उन्हें अपने निकट बैठा समझकर (वह बाला) दिन-रात प्रसन्न रहती है। क्षण में काँपती हैं, क्षण में पुलकित होती है, और क्षण में पसीने से तर हो जाती है।