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बिहारी सतसई / भाग 50 / बिहारी

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सकै सताइ न बिरहु-तमु निसि-दिन सरस सनेह।
रहै वहै लागी दृगनु दीप-सिखा-सी देह॥491॥

बिरह-तम = विरह-रूपी अंधकार। सरस सनेह = (1) प्रेम से शराबोर (2) तेल से भरा हुआ। दीप-सिखा = दिये की लौ।

विरह-रूपी अंधकार (नायक को) नहीं सता सकता, क्योंकि रात-दिन स्नेह से सरस (तेल से परिपूर्ण) दीपक की लौ के समान (उस नायिका की) देह उसकी आँखों से लगी रहती है-उसकी आँखों में बसी रहती है। (जहाँ दीपक की लौ, वहाँ अंधकार कहाँ!)

नोट - जो लोग हिन्दी में ‘पुरुष-विरह-वर्णन’ का अभाव देखकर दुःखित होते हैं उन्हें यह दोहा याद रखना चाहिए।


बिरह-जरी लखि जीगननु कह्यौ न उहि कै बार।
अरी आउ भजि भीतरै बरसत आजु अँगार॥492॥

बिरह-जरी = विरह-ज्वाल से जली हुई। जीगननु = जुगनुओं, भगजोगनियों। भजि = भागकर। अँगार = आग, चिनगारी।

विरह से जली हुई उस (नायिका) ने भगजोगनियों को देखकर उन सखियों से न जाने कितनी बार कहा (अर्थात् बहुत बार कहा) कि अरी! भीतर भाग आ, आज (आकाश से) चिनगारी की वर्षा हो रही है। (जल जायगी!)।

नोट - विरह में व्याकुल बाला को वर्षा-ऋतु में दीख पड़नेवाली भगजोगनी चिनगारी के समान दाहक मालूम पड़ती है।


अरैं परैं न करैं हियौ खरैं जरैं पर जार।
लावति घोरि गुलाब-सौं मलै मलै घनसार॥493॥

अरैं न परैं = अलग नहीं करती। खरैं = अत्यन्त। मलै = मलयज चंदन, श्रीखंड। घनसार = कर्पूर।

अरी सखी! हठ में मत पड़, अत्यन्त जले हुए हृदय को क्यों जला रही है? श्रीखंड और कर्पूर को मिलाकर (और उन्हें) गुलाब-जल में घोलकर (हृदय पर) क्यों लगा रही है? (इससे तो ज्वाला और भी बढ़ती है!)

नोट - बिरहिणी नायिका को श्रीखंड, कर्पूर, गुलाब-जल आदि परम शीतल पदार्थ भी अत्यन्त तापदायक प्रतीत होते हैं।


कहे जु बचन वियोगिनी विरह-विकल बिललाइ।
किए न को अँसुवा सहित सुआ ति बोल सुनाइ॥494॥

जु = जो। बिललाइ = अंटसंट बककर। सुआ = सुग्गा। ति = वह।

विरह से व्याकुल होकर उस वियोगिनी ने जो बिललाकर वचन कहे, सुग्गे ने उस वियोगिनी के ही वचन सुनाकर किसकी आँखों को आँसू-सहित न कर दिया-किसको रुला न दिया?

नोट ‘- नायिका के पास एक सुग्गा (तोता) था। उसने नायिका के प्रलापों को सुनते-सुनते याद कर लिया था। वह प्रायः उन प्रलापों को उसी मर्मस्पर्शी स्वर में कहता था, जिन्हें सुनकर लोग करुणावश रो पड़ते थे।


सीरैं जतननु सिसिर-रितु सहि बिरहिनि तन-तापु।
बसिबे कौं ग्रीषम दिननु पर्यौ परोसिनि पापु॥495॥

सीरैं जतननु = शीतल उपचारों (खस की टट्टी, बरफ आदि) से। सिसिर-रितु = पूस-माघ। तन-तापु = शरीर की ज्वाला। बसिबे कौं = रहने को। पापु पर्‌यौ = पाप पड़ गया = अत्यन्त कठिन हो गया, महादुःखदायक हो गया।

(पड़ोसियों ने अत्यन्त शीतल) शिशिर-ऋतु में शीतल उपचारों से विरहिणी नायिका के शरीर की ज्वाला को (किसी तरह) सहन किया। किन्तु (जलते हुए) ग्रीष्म के दिनों में (उस विरहिणी के पड़ोस में) रहना पड़ोसियों के लिए अत्यन्त कठिन हो गया।


पिय प्राननु की पाहरू करति जतन अति आपु।
जाकी दुसह दसा पर्यौ सौतिनि हूँ संतापु॥496॥

पाहरू = पहरुआ, रक्षक। दुसह =असह्य। संताप = पीड़ा।

(नायिका को) प्रीतम के प्राणों की रक्षिका समझकर उसकी रक्षा के लिए (सौतें) स्वयं भी अत्यन्त यत्न करती हैं (क्योंकि उसके बिना नायक नहीं जी सकता)। (आह! उसके दुःख का क्या पूछना!) जिसकी असहनीय अवस्था देखकर (स्वभावतः जलनेवाली) सौतों को भी दुःख होता है।


आड़े दै आले वसन जाड़े हूँ की राति।
साहसु ककै सनेह-बस सखी सबै ढिग जाति॥497॥

आड़े दै = ओट देकर, ओट करके। आले = भीगे हुए, ओढ़े। साहस = हिम्मत। सखी सबै = सभी सखियाँ। ढिग = निकट।

जाड़े की (ठंडी) रात में भी, गीले कपड़े की ओट कर, बड़े साहस से, प्रेमवश सभी सखियाँ (उस विरहिणी नायिका के) निकट जाती हैं! (क्योंकि उसके शरीर में ऐसी प्रचण्ड विरह-ज्वाला है कि आँच सही नहीं जाती!)


सुनत पथिक-मुँह माह-निसि लुवैं चलति उहिं गाम।
बिनु बूझैं बिनु ही कहैं जियति बिचारी बाम॥498॥

पथिक = राही, यात्री, मुसाफिर। लुवैं = लू। उहि गाम = उसी ग्राम (गाँव) में। बिचारी = समझा। जियति = जीती है।

बटोही के मुँह से यह सुनकर कि माघ की रात में भी उस गाँव में लू चलती है, बिना पूछे और बिना कहे-सुने ही (नायक ने) समझ लिया कि नायिका (अभी) जीती है (और निस्संदेह उसी की विरह-ज्वाला से मेरे गाँव में ऐसी हालत है।)


इत आवति चलि जाति उत चली छ-सातक हाथ।
चढ़ी हिंडोरैं-सैं रहै लगी उसासनु साथ॥499॥

इत = इधर। उत = उधर। चली = चलायमान या विचलित होकर या झोंके में पड़कर = खिंचकर। उसासनु = दुःख के कारण निकली हुई आह-भरी लम्बी साँस, जिसे दीर्घ निःश्वास, शोकोच्छ्वास, निसाँस आदि भी कहते हैं।

(विरह-वश अत्यन्त दुर्बल होने के कारण) लम्बी साँसों के साथ लगी हुई (नायिका मानो) झूले पर चढ़ी-सी रहती है। (झूला झूलने के समान लम्बी साँसों के झोंक से झूलती रहती है) फलतः वह (ऊँची साँसों के साथ) विचलित न होकर (कमी) छः-सात हाथ इधर आ जाती है (और कभी छः सात हाथ) उधर चली जाती है (उसका विरह-जर्जर कृश शरीर उसीकी लम्बी साँस के प्रबल झोंके से दोलायमान हो रहा है।)


(सो.) बिरह सुकाई देह, नेहु कियौ अति डहडहौ।
जैसैं बरसैं मेह, जरै जवासौ जौ जमै॥500॥

जवासौ = एक प्रकार का पेड़, जो वर्षा होने पर सूख जाता है। जैसे-अर्क जवास पात बिनु भयऊ-तुलसीदास। डहडहौ = हरा-भरा। मेह = मेघ। जौ = जीव, जड़, जपा, गुड़हर।

विरह ने देह को सुखा दिया और प्रेम को अत्यन्त हरा-भरा कर दिया, जैसे मेह के बरसने से जवासा जल जाता है और गुड़हर पुष्ट होता है।