बिहारी सतसई / भाग 54 / बिहारी
गिनती गनिबे तैं रहे छत हूँ अछत समान।
अब अलि ए तिथि औम लौं परै रहै तन प्रान॥531॥
छत = रहना। अछत = न रहना। अलि = सखी। औम तिथि = अवम तिथि = क्षय-तिथि-चन्द्रमा के अनुसार महीने की गिनती करने से बीच-बीच में कितनी तिथियों की हानि हो जाती है, और लुप्त होने पर भी वे पत्रा में लिखी जाती हैं, पर उनकी गणना नहीं होती।
(मेरे प्राण) गिनती में गिने जाने से भी रहे-अब कोई इनकी (जीवित में) गिनती भी नहीं करता। रहते हुए भी न रहने के समान हो रहे हैं। हे सखी, अब ये मेरे प्राण क्षय-तिथि के समान शरीर में पड़े रहते हैं।
जाति मरी बिछुरति घरी जल-सफरी की रीति।
खिन-खिन होति खरी-खरी अरी जरी यह प्रीति॥532॥
सफरी = मछली। रीति = भाँति, समान। खरी-खरी होति = बढ़ती जाती है। जरी = जली हुई, मुँहजली। खिन-खिन = क्षण-क्षण।
जल की मछली के समान एक घड़ी भी (प्रियतम से) बिछुड़ने पर मरी जाती हूँ। अरी सखी! तो भी यह मुँहजली प्रीति ऐसी है कि क्षण-क्षण बढ़ती ही जाती है।
मार सु मार करी खरी मरी मरीहिं न मारि।
सोंचि गुलाब घरो-घरी अरी बरीहिं न बारि॥533॥
मार = कामदेव। सु मार = गहरी मार या चोट। खरी = अत्यन्त, खूब। मरी = मर गई। मरीहिं = मरी हुई को। मारि = मारो। बरीहिं = जली हुई को। बारि = जलाओ।
कामदेव ने तो खूब ही गहरी मार मारी है, (जिससे) मैं मर गई हूँ, (अब फिर) मरी हुई को मत मार। अरी सखी! घड़ी-घड़ी गुलाब-जल छिड़ककर, (विरह में) जली हुई को मत जला।
रह्यौ ऐंचि अंत न लह्यौ अवधि दुसासन बी/।
आली बाढ़तु बिरहु ज्यौं पंचाली कौ चीरु॥534॥
ऐंचि = खींचना। अंत न लह्यौ = अन्त (छोर) न पाया, पार न पाया। अवधि = वादे का दिन, निश्चित तिथि। आली = सखी। पंचाली = द्रौपदी।
(प्रीतम के आने का) निश्चित समय-रूपी दुःशासन-वीर (विरह-रूपी दीर्घ चीर को) खींचता ही रह गया, किन्तु पार न पाया। अरी सखी! यह विरह द्रौपदी के चीर के समान बढ़ रहा है।
नोट - जिस प्रकार द्रौपदी के चीर को दुःशासन खींचता रह गया और छोर न पा सका, उसी प्रकार प्रीतम के आने का निश्चित दिन प्रिया के विरह को शांत न कर सका। अर्थात् प्रीततम के आने का दिन ज्यों-ज्यों निकट आता है, त्यों-त्यों विरहिणी की व्यथा बढ़ रही है।
बिरह-बिथा-जल परस बिन बसियतु मो मन-ताल।
कछु जानत जलथंभ-बिधि दुरजोधन लौं लाल॥535॥
बिथा = व्यथा, दुःख। परस = स्पर्श। ताल = तालाब। लौं = समान।
बिरह के दुःख रूपी जल के स्पर्श बिना मेरे मन-रूपी तालाब में बसते हो-यद्यपि सदा मैं तुम्हें हृदय में धारण किये रहती हूँ, तथापित मेरी हार्दिक व्यथा का तुम अनुभव नहीं करते। (सो मालूम होता है कि) हे लाल! तुम दुर्योधन के समान कुछ जल-स्तम्भन-विधि जानते हो।
नोट - दुर्योधन जलस्तम्भन-विधि जानता था। अगाध जल में घुसकर बैठ रहता था, किन्तु उस पर जल का कुछ प्रभाव नहीं पड़ता था।
सोवत सपनैं स्यामघनु हिलि-मिलि हरत बियोगु।
तबहीं टरि कित हूँ गई नींदौ नींदनु जोगु॥536॥
नींदौ = नींद भी। नींदन जोगु = निन्दा करने के योग्य, निन्दनीय।
सोते समय स्वप्न में श्रीकृष्ण हिल-मिलकर विरह हर रहे थे-विछोह के दुःख का नाश कर रहे थे। उसी समय निंदनीय नींद भी न मालूम कहाँ टल गई।
पिय-बिछुरन कौ दुसह दुखु हरपु जात प्यौसार।
दुरजोधन लौं देखियति तजति प्रान इहि बार॥537॥
प्यौसार = नैहर, मायका, पीहर। लौं = समान।
यद्यपि प्रीतम से बिछुड़ने का असह्य दुःख है, तथापि प्रसन्न होकर नैहर जाती है। (इस अत्यन्त दुःख और अत्यन्त सुख के सम्मिश्रण से) यह बाला दुर्योधन के समान प्राण त्यागती हुई दीख पड़ती है-(मालूम होता है कि इस आत्यन्तिक सुख-दुःख के झमेले में इसके प्राण ही निकल जायँगे।)
नोट - दुर्योधन को शाप था कि जब उसे समान भाव से सुख और दुःख होगा, तभी वह मरेगा। ऐसा ही हुआ भी। दुर्योधन के आदेशानुसार अश्वत्थामा पाण्डवों के भ्रम से उनके पुत्रों के सिर काट लाया। पहले शत्रु-वध-जनित अतिशय आनन्द हुआ, फिर सिर पहचानने पर समूल वंशनाश जानकर घोर दुःख।
कागद पर लिखत न बनत कहत सँदेसु लजात।
कहिहै सबु तेरौ हियौ मेरे हिय की बात॥538॥
कागद = कागज। हियौ = हृदय।
कागज पर लिख्तो नहीं बनता-लिखा नहीं जाता, और (जवानी) संदेश कहते लज्जा आती है। बस तुम्हारा हृदय ही मेरे हृदय की सारी बातें (तुमसे) कहेगा।
नोट - श्रीरामचन्द्र जी ने सीता जी के पास अत्यन्त हृदयग्राही संदेश भेजा था। तुलसीदास की मर्मस्पर्शी भाषा में उसे पढ़िए-
तत्त्व प्रेम कर मम अरु तोरा, जानत प्रिया एक मन मोरा।
सो मन रहत सदा तोहि पाहीं, जानु प्रीति-रस इतनिय माहीं॥
बिरह-बिकल बिनु ही लिखी पाती दई पठाइ।
आँक-बिहूनीयौ सुचित सूनै बाँचत जाइ॥539॥
आँक-बिहूनीयौ = अक्षर-विहीन होने पर भी। सुचित = स्थिरचित होकर, अच्छी तरह से। सूनै = खाली-ही-खाली। बाँचत जाइ = पढ़ता जाता है।
विरह व्यथिता (बाला ने) बिना लिखे ही (सादे कागज के रूप में) चिट्ठी पठा दी। (और इधर प्रेम-मत्त प्रीतम) उस अक्षर-रहित (चिट्ठी) को भी अच्छी तरह से खाली-ही-खाली पढ़ता जाता है।
रँगराती रातैं हियैं प्रियतम लिखी बनाइ।
पाती काती बिरह की छाती रही लगाइ॥540॥
रँगराती = लाल रंग में रँगी। रातैं हियैं = प्रेमपूर्ण (अनुरक्त) हृदय। पाती = चिट्ठी। काती = छोटी तेज तलवार, कत्ती।
प्रेमपूर्ण हृदय से प्रीतम ने लाल रंग में (लाल स्याही से) रच-रचकर चिट्ठी लिखी, और विरह को काटनेवाली तलवार समझकर उस चिट्ठी को (प्रियतमा) हृदय से लगाये रही।