बिहारी सतसई / भाग 58 / बिहारी
कुढँगु कोप तजि रँगरली करति जुवति जग जोइ।
पावस गूढ़ न बात यह बूढ़नु हूँ रँग होइ॥571॥
कुढँगु = नटखटपन, मानिनी का वेष। कोप = क्रोध। रँगरली = केलि-रंग, विहार। जोइ = देखो। पावस = वर्षा-ऋतु। गूढ़ = गुप्त, छिपा हुआ। बूढ़नु = (1) एक लाल कीड़ा, बीरबहूटी (2) बूढ़ियों। रँग = (1) रसिकता, उमंग (2) प्रेम।
देखो, नटखटपन और क्रोध छोड़कर संसार की युवतियाँ अपने प्रीतमों के संग रँगरलियाँ (विहार) करती हैं। और तो और, यह बात भी छिपी नहीं है कि इस वर्षा-ऋतु में बूढ़ियों (बीरबहूटियों) में भी रंग आ जाता है-उमंग उमड़ आती है। (फिर युवतियों का क्या पूछना?)
धुरवा होहि न अलि इहै धुआँ धरनि चहुँकोद।
जारतु आवत जगतु कौं पावस-प्रथम-पयोद॥572॥
धुरवा = मेघ। अलि = सखी। धरनि = पृथ्वी। चहुँकोद = चारों ओर। पावस-प्रथम-पयोद = वर्षा-ऋतु के पहलीे दिन का बादल।
वर्षा-ऋतु के पहले दिन का बादल संसार को जलाता हुआ चला आता हे। हे सखी, यह उसी का (संसार के जलने का) धुआँ पृथ्वी के चारों ओर (दीख पड़ता है), यह मेघ हो नहीं सकता।
हठु न हठीली करि सकैं यह पावस-ऋतु पाइ।
आन गाँठि घुटि जाति ज्यौं मान-गाँठि छुटि जाइ॥573॥
आन = दूसरा। गाँठि = गिरह। घुटि जाति = कड़ी पड़ जाती है।
इस पावस-ऋतु को पाकर-इस वर्षा के जमाने में-हठीली नायिका भी हठ नहीं कर सकती, (क्योंकि इस ऋतु में) अन्य गाँठें जिस प्रकार कड़ी पड़ जाती है, (उसी प्रकार) मान की गाँठ (आप-से-आप) खुल जाती है।
नोट - बरसात में सन, मूँज आदि की रस्सियों की गाँठें कड़ी पड़ जाती हैं, पर मेघ उमड़ने और बिजली कौंधने पर मान की गाँठ टूट ही जाती है।
वेऊ चिरजीवी अमर निधरक फिरौ कहाइ।
छिन बिछुरैं जिनकी नहीं पावस आउ सिराइ॥574॥
आउ = उम्र, अवस्था। सिराइ = बीतती है।
वे भी बेखटके चिरजीवी और अमर कहलाते फिरें जिनकी आयु पावस-ऋतु में एक क्षण के वियोग मकें भी नहीं बताती-या जो (रसिक जन) इस वर्षा-ऋतु में अपनी प्रियतम से क्षण मात्र के लिए बिछुड़ने पर भी मर नहीं जाते, वे ही अमर और चिरजीवी पदवी के हकदार हैं।
नोट - प्रेमी कवि ठाकुर ने भी क्या खूब कहा है-”सजि सोहे दुकूलन बिज्जुछटा-सी अटान चढ़ी घ्ज्ञटा जोवति हैं। रँगराती सुनी धुनि मोरन की मदमाती सँजोग सँजोवति हैं॥ कवि ‘ठाकुर’ वे पिय दूर बसें हम आँसुन सों तन धोवति हैं। धनि वे धनि पावस की रतियाँ पति की छतियाँ लगि सोवति हैं।“
अब तजि नाउँ उपाव कौ आयौ सावन मास।
खेलु न रहिबो खेम सौं केम-कुसुम की बास॥575॥
नाउँ = नाम। उपाव = उपाय, यंत्र, तरकीब, युक्ति। खेम = क्षेम, कुशल। केम-कुसुम = कदम्ब का फूल, जिसमें बड़ी भीनी-भीनी और मस्तानी सुगन्ध होती है।
अब उपाय का नाम छोड़ो- उस बाला के फँसाने की युक्तियों को त्यागो, क्योंकि सावन का महीना आ गया। कदम्ब के फूल की सुगन्ध सूँघकर कुशल-क्षेम से रह जाना हँसी-खेल नहीं-अर्थात् कदम्ब के फूल की गन्ध पाते ही वह पगली (मस्त) होकर अपने-आप तुमसे आ मिलेगी।
बामा भामा कामिनी कहि बोलौ प्रानेस।
प्यारी कहत खिसात नहिं पावस चलत बिदेस॥576॥
बामा = (1) स्त्री (2) जिससे विधाता वाम हो। भामा = (1) स्त्री (2) मानिनी, क्रुद्धस्वभावा। कामिनी = (1) स्त्री (2) जो किसी की कामना करे। प्रानेस = प्राणेश, प्राणनाथ। खिससात = लजाते हो।
हे प्राणनाथ! मुझे बामा, मामा और कामिनी नाम से कहकर पुकारिए। इस वर्षा-ऋतु में विदेश जाते हुए भी मुझे प्यारी कहते लज्जा नहीं आती? (यदि मैं सचमुच आपकी ‘प्यारी’ होती, तो इस वर्षा-ऋतु में मुझे अकेली छोड़कर आप विदेश क्यों जाते?)
उठि ठकुठकु एतौ कहा पावस कैं अभिसार।
जानि परैगी देखियौ दामिनि घन-अँधियार॥577॥
ठकुठकु = झमेला। एतौ = इतना। अभिसार = प्रेमी से मिलने के लिए संकेत-स्थल पर जाना। देखियौ = देख लिये जाने पर भी। दामिनी = बिजली। घन = बादल।
उठो, वर्षा-ऋतु के अभिसार में भी इतना झमेला कैसा-इतनी हिचकिचाहट और सजधज क्यों? देखा लिये जाने पर भी बादलों के अंधकार में तुम बिजली जान पड़ोगी-जो तुम्हें देखेंगे भी वे समझेंगे कि बादलों में बिजली चमकती जा रही है।
फिर सुधि दै सुधि द्यााइ प्यौ इहिं निरदई निरास।
नई नई बहुर्यौ दई दई उसासि उसास॥578॥
सुधि दै = होश दिलाकर। सुधि द्याइ = याद दिला दी। बहुर्यौ = फिर। उसास उसासि दई = उसाँसें उभाड़ दीं। उसासि = ऊँची साँस।
इस निर्दय (पावस-ऋतु) ने निराशा में मुझे पुनः होश दिलाकर प्रियतम की याद कर दी। ब्रह्मा ने फिर नई-नई उसाँसें उमाड़ दी हैं (अतः इस अवस्था में तो बेहोश ही रहना अच्छा था।)
घन-घेरा छुटिगौ हरषि चली चहूँ दिसि राह।
कियौ सुचैनौ आइ जगु सरद सूर नरनाह॥579॥
घन = मेघ। घेरा = आक्रमणकारी सेना-मण्डल। सुचैनौ = खूब निश्चिंत। सूर = बली। नरनाह = नरनाथ, राजा।
मेघों का घेरा छूट गया। प्रसन्न होकर चारों ओर की राहें चलने लगीं-पथिक आने-जाने लगे। शरद-रूपी बली राजा ने आकर संसार को (उपद्रवों से) खूब निश्चिंत बना दिया। (वर्षा-ऋतु के उपद्रव शान्त हो गये।)
ज्यौं-ज्यौं बढ़ति बिभावरी त्यौं-त्यौं बढ़त अनंत।
ओक-ओक सब लोक-सुख कोक सोक हेमंत॥580॥
विभावरी = रात। अनन्त = जिसका अन्त न हो, अपार। ओक = घर। लोक = लोग, जन-समुदाय। कोक = चकवा।
ज्यों-ज्यों रात बढ़ती जाती है-रात बड़ी होती जाती है, त्यों-त्यों हेमन्त ऋतु में घर-घर में सब लोगों का सुख और चकवा-चकई का दुःख बेहद बढ़ता जाता है।
नोट - जाड़े की रात बड़ी होने से संयोगी तो सुख लूटते हैं, और चकवा-चकई के मिलने में बहुत देर होती है, जिससे वे दुखी होते हैं; क्योंकि रात में शापवश वे मिल नहीं सकते।