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बिहारी सतसई / भाग 64 / बिहारी

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प्रतिबिम्बित जयसाहि-दुति दीपति दरपन-धाम।
सबु जगु जीतन कौं कर्‌यौ काय-व्यूह मनु काम॥631॥

दुति = द्युति, चमक। दीपति = जगमगाती है। दरपन-धाम = आइने का बना हुआ घर, शीश-महल। काय-व्यूह शरीर की सैन्य रचना।

शीश-महल में राजा जयसिंह की द्युति प्रतिबिम्बित होकर जगमगा रही है-जिधर देखो उधर उन्हीं का रूप दीख पड़ता है-मानो कामदेव ने समूचे संसार को जीतने के लिए काय-व्यूह बनाया हो-अनेक रूप धारण किये हों।

नोट - जयपुर में महाराज जयसिंह का वह शीश-महल अब तक वर्त्तमान है। उसकी दीवारें, छत, फर्श सब कुछ शीशे का बना है। उसमें खड़े हुए एक मनुष्य के अनेक प्रतिबिम्ब चारों ओर देख पड़ते हैं।


दुसह दुराज प्रजानु कौं क्यों न बढ़ै दुखु दंदु।
अधिक अँधेरौ जग करत मिलि मावस रवि-चंदु॥632॥

दुसह = असहनीय, (यहाँ) अत्यन्त क्षमताशील। दुराज = दो राजा। दन्दु = द्वन्द = दुःख। मावस = अमावस।

अत्यन्त क्षमताशील दो राजाओं के होने से प्रजा के दुःख क्यों न अत्यन्त बढ़ जायँ? अमावस के दिन सूर्य और चन्द्रमा (एक ही राशि पर) मिलकर संसार में अधिक अँधेरा कर देते हैं।

नोट - ज्योतिष के अनुसर अमावस के दिन सूर्य और चन्द्रमा एक ही राशि पर होते हैं। आधुनिक विज्ञान भी इसका समर्थन करता है।


बसैबुराई जासु तन ताही कौ सनमानु।
भलौ भलौ कहि छोड़ियै खोटैं ग्रह जपु दानु॥633॥

बुराई = अपकार। सनमनु = आदर। खोटैं = बुरे।

जिसके शरीर में बुराई बसती है-जो बुराई करता है, उसी का सम्मान होता है। (देखिए) भले ग्रहों (चन्द्र, बुध आदि) को तो भला कहकर छोड़ देते हैं-और बुरे ग्रहों (शनि, मंगल आदि) के लिए जप और दान किया जाता है।


कहै यहै स्रुति सुम्रत्यौ यहै सयाने लोग।
तीन दबावत निसक हीं पातक राजा रोग॥634॥

सु्रति = श्रुति, वेद। सुम्रत्यौ = स्मृति। सयाने = चतुर। दबावत = सताते हैं। निसक = निःशक्त, निर्बल, कमजोर। पातक = पाप।

(सभी) श्रुतियाँ और स्मृतियाँ यही कहती हैं, और चतुर लोग भी यही (कहते हैं) कि पाप, राजा और रोग-ये तीन-कमजोर ही को दबाते हैं-दुःख देते हैं।


बड़े न हूजै गुननु बिनु बिरद बड़ाई पाइ।
कहत धतूरे सौं कनकु गहनौ गढ़यौ न जाइ॥635॥

हूजै = हो सकते। बिरद = बाना। कनकु (1) सोना (2) धतूरा।

बड़ाई का बाना पा लेने से-ऊँचा नाम रख लेने से-गुण के बिना बड़े हो नहीं सकते। ‘कनक’ कहे जाने पर भी-‘सोने’ का अर्थवाची (कनक) नाम होने पर भी धतूरे से (सोने के समान) गहने नहीं गढ़ जाते।


गुनी गुनी सब कैं कहैं निगुनी गुनी न होतु।
सुन्यौ कहूँ तरु अरक तैं अरक समान उदातु॥636॥

अरक = (1) अकवन = (2) सूर्य। उदोतु = ज्योति, प्रकाश।

सब किसी के ‘गुणी-गुणी’ कहकर पुकारने से-गुणहीन (कभी) गुणी नहीं हो सकता। (सब लोग ‘अकवन’ को ‘अर्क’ कहते हैं, और ‘अर्क’ ‘सूर्य’ को भी कहते हैं) सो एक नाम-(परस्पर पर्यायवाचक होने पर भी) ‘अकवन’ के पेड़ से क्या कभी ‘सूर्य’ के समान ज्योति निकलते सुना है?


नाह गरजि नाहर-गरज बोलु सुनायौ टेरि।
फँसी फौज मैं बन्दि बिच हँसी सबनु तनु हेरि॥637॥

नाह = पति। गरजि = गरजकर। नाहर-गरज = सिंह का गर्जन। टेरि बोलु सुनायौ = जोर से बोल सुनाया। बन्दि = घेरा। हेरि = देखकर।

सिह के गर्जन के समान गरजकर पति (श्रीकृष्ण) ने जोर से (अपना) बोल सुना दिया। (उसे सुनते ही) फौज के घेरे में फँसी हुई (रुक्मिणी) सब लोगों के शरीर की ओर देखकर हँस पड़ी (कि अब तुम मेरा कुछ नहीं बिगाड़ सकते।)


संगति सुमति न पावहीं परे कुमति कैं धंध।
राखौ मेलि कपूर मैं हींग न होइ सुगंध॥638॥

सुमति = सुन्दर मति, सुबुद्धि। कुमति = दुष्ट बुद्धि। धंध = जंजाल, फेर। मेलि = मिलाकर।

जो कुमति के धंधे में पड़ा रहता है-जिसे खराब काम करने की आदत सी लग जाती है, वह सत्संगति से भी सुमति नहीं पाता-नहीं सुधरता। कपूर में मिलाकर भले ही रक्खो, किन्तु हींग सुगंधित नहीं हो सकती।


पर-तिय-दोषु पुरान सुनि लखी मुलकि सुखदानि।
कसु करि राखी मिस्र हूँ मुँह आई मुसकानि॥639॥

पर-तिय-दोषु = पर स्त्री-गमन का दोष। मुलकि = हँसकर, मुस्कुराकर। मिस्र = कथा बाँचने वाले पौराणिक या व्यास।

पर-स्त्री प्रसंग का दोष पुराण में सुनकर उस सुखदायिनी स्त्री ने (जो पौराणिक जी की परकीया थी, और कथा सुनने आई थी) हँसकर (पौराणिक जी की ओर) देखा (कि दूसरों को तो उपदेश देते हो, और स्वयं मुझसे फँसे हो!) और, पौराणिक मिश्र जी ने भी (अपनी प्रेमिका की हँसी देखकर) अपने मुँह तक आई मुस्कुराहट को बलपूर्वक रोक रक्खा (कि कहीं लोग ताड़ न जायँ!)


सब हँसत करतारि दै नागरता कै नाँव।
गयौ गरबु गुन कौ सरबु गएँ गँवारैं गाँव॥640॥

(जहाँ) नागरिकता के नाम पर-नागरिक प्रवीणता के नाम पर-सब लोग ताली बजा-बजाकर हँसते हैं, (उस) गँवारों के गाँव में बसने से गुण का सारा गर्व जाता रहा!