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बिहारी सतसई / भाग 65 / बिहारी

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फिरि-फिरि बिलखी ह्वै लखति फिरि-फिरि लेति उसाँसु।
साँई सिर कच सेत लौं बीत्यौ चुनति कपासु॥641॥

बिलखी = व्याकुल। साँई = पति। कच = केश, बाल। चुनति = चुनती या बीनती है। बीत्यौ = बीती हुई, उजड़ी हुई।

बार-बार व्याकुल होकर देखती है, और बार-बार लम्बी साँसें लेती है-गरम आह भरती है! यों उजड़ी हुई कपास को पति के सिर के उजले केश के समान चुनती है। (कपास के उजड़े हुए खेत की कपास चुनने में उसे उतना ही कष्ट होता है, जितना वृद्ध पति के सिर के उजले केश चुनने में नवयुवती पत्नी को होता है)

नोट - कपास का खेत नायिका के गुप्त-मिलन का स्थान था। उसके उजड़ जाने पर उसे दुःख है। उजले केश के विषय में ‘केशव’ का कहना है-”केसब केसनि अस करी, जस अरिहू न कराहि; चन्द्रबदनि मृगलोचनी, बाबा कहि-कहि जाहिं।“


नर की अरु नल-नीर की गति एकै करि जोइ।
जेतौ नीचौ ह्वै चलै तेतौ ऊँचौ होइ॥642॥

नल-नीर = नल का पाी। एकै करि = एक ही समान। गति = चाल। जोइ =देखी जाती है।

आदमी की और नल के पानी की एक ही गति दीख पड़ती है। वे जितने ही नीचे होकर चलते हैं उतने ही ऊँचे होते हैं। (आदमी जितना ही नम्र होकर चलेगा, वह उतना ही अधिक उन्नति करेगा, और नल का पानी जितने नीचे से आयगा, उतना ही ऊपर चढ़ेगा।)


बढ़त-बढ़त सम्पति-सलिलु मन-सरोज बढ़ि जाइ।
घटत-घटत सु न फिरि घटै बरु समूल कुम्हिलाइ॥643॥

सलिलु = पानी। सरोज = कमल। बरु = भले ही।

धन-रूपी जल के बढ़ते जाने से मन-रूपी कमल भी बढ़ता जाता है। किन्तु (जल के) घटते जाने पर वह (कमल) पुनः नहीं घटता, भले ही जड़ से कुम्हिला जाय। (धनी का मन गरीब होने पर भी वैसा ही उदार रह जाता है।)


जो चाहौ चटक न घटै मैलो होइ न मित्त।
रज राजस न छुवाइयै नेहु चीकनैं चित्त॥644॥

चटक = चटकीलापन। मैलो = मलिन। रज = धूल। राजस = धन-वित्त। नेहु = (1) प्रेम (2) घी, तेल।

हे मित्र, जो चाहते हो कि (प्रेम या मन का) चटकीलापन न घटे, और वह मलिन न हो, तो प्रेम (रूपी तेल) से चिकने बने हुए चित्त में रुपये-पैसे के व्यवहार-रूपी धूल को न छुलाओ।


अति अगाधु अति औथरौ नदी कूप सरु बाइ।
सो ताकौ सागरु जहाँ जाकी प्यास बुझाइ॥645॥

अगाधु = अथाह। औथरौ = उछले, छिछले। कूप = कुँआ। सरु = तालाब। बाइ = बावड़ी, वापी, सरसी। सागरु = समुद्र।

अत्यन्त अथाह और अत्यन्त उथली (कितनी ही) नदियाँ, कुँए, तालाब और बावड़ियाँ हैं। किन्तु जहाँ जिसकी प्यास बुझती है, उसके लिए वही समुद्र है।


मीत न नीति गलीतु ह्वै जौ धरियैं धनु जोरि।
खाऐं खरचैं जौ जुरै तौ जोरियै करोरि॥646॥

नीति न = नीति नहीं, उचित नहीं। गलीतु ह्वै = गल-पचकर, अत्यन्त दुःख सहकर। जोरि = जोड़कर, इकट्ठा कर।

हे मित्र, यह उचित नहीं है कि गल-पचकर-अत्यन्त दुःख सहकर-धन इकट्ठा कर रखिए। (हाँ, अच्छी तरह) खाने और खरचने पर जो इकट्ठा हो सके, तो करोड़ों रुपये जोड़िए-इकट्ठा कीजिए।


टटकी धोई धोवती चटकीली मुख-जोति।
लसति रसोई कैं बगर जगरमगर दुति होति॥647॥

टटकी घोई = तुरत की धुली हुई। धोवती = धोती, साड़ी। बगर = घर। जगरमगर = जगमग। दुति = ज्योति।

तुरत की धोई हुई साडी और मुख की चटकीली चमक वाली नायिका रसोई के घर में शोभा पा रही है, जिससे जगमग ज्योति फैल रही है।


सोहतु संगु समान सौं यहै कहै सबु लोग।
पान-पीक ओठनु बनै काजर नैननु जोगु॥648॥

समान = बराबरी का। बनै = बन आती है, शोभती है।

‘बराबरी का संग (सम्बन्ध) ही शोभता है,’ सब लोग यही कहते हैं। जैसे, (लाल) ओठों में पान की (लाल) पाक बन आती है, और (काली) आँखों के योग्य (काला) काजर समझा जाता है।


चित पित-मारक जोगु गनि भयौ भयैं सुत सोगु।
फिरि हुलस्यौ जिय जाइसी समुझैं जारज जागु॥649॥

पित-मारक = पितृहन्ता, पिताघातक। सोगु = शोक। जाइसे = ज्योतिषी। जारज = दोगला, जो अपने बाप से न जन्मे।

चित्त में पितृघातक योग विचारकर-यह जानकर कि इस नक्षत्र में पुत्र उत्पन्न होने से पिता की मृत्यु होती है-अपना पुत्र होने पर भी (ज्योतिषी जी को) शोक हुआ। किन्तु पुनः जारज-योग समझकर-यह समझकर कि इस नक्षत्र में उत्पन्न होने वाला लड़का दोगला होता है-ज्योतिषी जी हृदय में प्रसन्न हुए (कि यह मेरा पुत्र तो है नहीं, फिर मैं कैसे मरूँगा? मरेंगे तो वे, जिनसे मेरी स्त्री का गुप्त सम्बन्ध था!)


अरे परेखौ को करै तुँहीं बिलोकि बिचारि।
किहिं नर किहिं सर राखियै खरैं बढ़ैं परि पारि॥650॥

परेखौ = परीक्षा। सर = तालाब। पारि = (1) बाँध (2) मर्यादा।

अजी, कौन परीक्षा करे? तुम्हीं विचार कर देखो, किस पुरुष ने और किस तालाब ने अत्यन्त बढ़ने पर अपनी मर्यादा-बाँध-की रक्षा की है? (तालाब में अत्यन्त जल होगा, वह उबल पड़ेगा, और आदमी को भी अधिक धन होगा, तो वह इतराता चलेगा।)