बिहारी सतसई / भाग 67 / बिहारी
को कहि सकै बड़ेनु सौं लखैं बड़ी त्यौं भूल।
दीने दई गुलाब की इन डारनु वे फूल॥661॥
भूल = गलती। दीने = दिया है। दई = दैव, विधाता।
(बड़ो की) बड़ी भी भूल देखकर बड़ों से कौन कह सकता है? विधाता ने गुलाब की इन (कँटीली) डालियों में वे (सुन्दर) फूल दिये हैं (फिर भी उनसे कौन कहने जाता है कि यह आपकी भूल है!)
वे न इहाँ नागर बढ़ी जिन आदर तो आब।
फूल्यौ अनफूल्यौ भयौ गँवई गाँव गुलाब॥662॥
नागर = नगर के रहने वाले, चतुर, रसिक। आब = शोभा, रौनक। गँवई गाँव = ठेठ देहात।
यहाँ (देहात में) वे रसिक ही नहीं हैं, जो तेरी शोभा और आदर को बढ़ाते। ऐ गुलाब, इस ठेठ देहात में फूलकर भी तुम बिना फूले हुए हो गये-तुम्हारा फूलना न फूलना बराबर हो गया।
कर लैं सूँघि सराहिहूँ रहैं सबै गहि मौनु।
गंधी अंध गुलाब कौ गँवई गाहकु कौनु॥663॥
कर = हाथ। गंधी = इत्र बेचनेवाला। गँवई देहात।
हाथ में लेकर सूँघकर और प्रशंसा करके भी सब चुप रह जाते हैं। अरे अंधा इत्रफरोश, इस गुलाब के इत्र का इस गँवई में कौन गाहक होगा?
को छूट्यौ इहिं जाल परि कत कुरंग अकुलात।
ज्यौं-ज्यौं सुरझि भज्यौ चहत त्यौं-त्यौं उरझत जात॥664॥
कत = क्यों। कुरंग = हिरन। भज्यौ = भागना।
इस जाल में पड़कर कौन छूटा? फिर, अरे हिरन! तू क्यों अकुलाता है? देख, ज्यों-ज्यों तू सुलझकर भागना चाहता है, त्यों-त्यों (इस उछल-कूद से) उलझता जाता है।
पटु पाँखै भखु काँकरै सपर परेई संग।
सुखी परेवा पहुमि मैं एकै तुँहीं बिहंग॥665॥
पटु = वस्त्र। भखु = भक्ष्य, भोजन। परेई- ‘परेवा’ का स्त्रीलिंग ‘परेई’। बिहंग = पक्षी। सपर = पंखयुक्त, परिवार के साथ।
पंख ही तुम्हारा वस्त्र है, (सर्वत्र सुलभ) कंकड़ ही तुम्हारा भोजन है, और पंख वा परिवार (बाल-बच्चों) के साथ (अपनी प्राणेश्वरी) परेई का संग है-कभी वियोग नहीं होता। सो, हे परेवा, संसार में तुम्हीं एक सुखी पक्षी हो-तुम्हें यथार्थ में सुखी कह सकते हैं।
नोट - इस दोहे में बिहारी ने सुखी जीवन का एक चित्र-सा खींच दिया है। भोजन-वस्त्र की सुलभता और बाल-बच्चों के साथ प्राणप्यारी का सहवास-इसके आगे सुखी बनने के लिए और चाहिए ही क्या? किन्तु आजकल के नवयुवक कहेंगे-‘स्वाधीनता’। सो ‘बिहंग’ शब्द से ‘स्वाधीनता’ का भाव स्पष्ट व्यक्त होता है। ‘बिहंग’ का अर्थ है ‘आकाश में (स्वच्छन्द) विचरण करने वाला’-अतएव-‘स्वतन्त्र’।
स्वारथु सुकृत न स्रमु बृथा देखि बिहंग बिचारि।
बाज पराऐं पानि परि तूँ पच्छीनु न मारि॥666॥
सुकृत = पुण्यकर्म। स्रमु = श्रम, मिहनत। बिहंग = आकाश में उड़नेवाला, पक्षी। पानि । हाथ
न तो इसमें तेरा कोई स्वार्थ है (क्योंकि मांस खुद बहेलिया ले लेगा), और न कोई पुण्य-कार्य है (क्योंकि यह हत्यारापन है), इस प्रकार यह परिश्रम व्यर्थ है, ऐ (उन्मुक्त आकाश में स्वच्छन्द विचरण करने वाला) पक्षी! विचार कर देख। अरे बाज! दूसरे के हाथ पर बैठकर (दूसरे के बहकावे में आकर) पक्षियों को (स्वजातियों को) मत मार।
दिन दस आदरू पाइकै करि लै आपु बखानु।
जौ लौं काग सराध-पाु तौ लौं तौ सनमानु॥667॥
बखानु = बड़ाई। लौं = तक। सराघ-पखु = श्राद्ध पक्ष या श्राद्ध का पखवारा। सनमानु = सम्मान, आदर।
दो-चार-दस दिन (कुछ दिन) आदर पाकर अपनी बड़ाई कर ले। अरे काग! जब तक श्राद्ध का पखवारा है, तभी तक तेरा आदर भी है।
नोट - श्राद्ध में काग को बलि का भाग दिया जाता है।
मरत प्यास पिंजरा पर्यौ सुआ समैं कैं फेर।
आदरु दै दै बोलियतु बाइसु बलि की बेर॥668॥
सुआ = सुग्गा, तोता। बाइसु = कोवा। बलि = श्राद्ध के अन्न में से निकाला हुआ कौवे का भाग। बेर = समय।
समय के फेर से (भाग्य-चक्र के प्रभाव से) सुग्गा पिंजड़े में पड़ा प्यासा मर रहा है, और (श्राद्ध-पक्ष होने के कारण) बलि देने के समय काग को आदर के साथ बुला रहे हैं-(कैदवन्द सुग्गे का प्यासों मरना और स्वच्छन्द कौवे का सादर भोजनार्थ बुलाया जाना-सचमुच किस्मत का खेल है!)
जाकैं एकाएकहूँ जग ब्यौसाइ न कोइ।
सो निदाध्घ फूलै फरै आकु डहडहौ होइ॥669॥
एकाएकहूँ = अकेला भी, एकाकी भी। ब्यौसाइ = उपाय, यत्न। निदाघ = ग्रीष्म-ऋतु। आकु = अर्क = अकवन। डहडहौ = लहलहा, हरा-भरा।
जिसके लिए संसार में कोई अकेला मनुष्य भी उपाय करने वाला नहीं है-जिसे सींचने का कोई उद्योग नहीं किया जाता-वही ‘अकवन’ ग्रीष्म-ऋतु में भी हरा-भरा रहता है और फूलता-फलता है।
नोट - तुलसी बिरबा बाग को सींचत हू कुम्हिलाय।
राम-भरोसे जो रहै परवत पर हरियाय॥-तुलसीदास
नहि पावसु ऋतुराज यह तजि तरबर चित भूल।
अपतु भऐं बिनु पाइहै क्यों नव दल फल फूल॥670॥
पावसु = वर्षा-ऋतु। ऋतुराज = वसन्त-ऋतु।
यह पावस नहीं (जिसमें सब वृक्ष स्वभावतः हरे-भरे बने रहते हैं, वसन्त है। हे वृक्ष, मन की इस भूल को छोड़ दो। इस ऋतु में बिना पत्र-रहित हुए तुम कैसे नये पत्ते और फल-फूल प्राप्त करोगे?) वसन्त में हरा-भरा होने से पहले-पतझड़ के कारण-पत्ररहित होना ही पड़ेगा।