बिहारी सतसई / भाग 69 / बिहारी
यह जग काँचो काँच-से मैं समझयौ निरधार।
प्रतिबिम्बित लखियै जहाँ एकै रूप अपार॥681॥
काँचो = कच्चा, क्षणभंगुर। निरधार = निश्चित रूप से।
यह मैंने निश्चित रूप से जान लिया कि यह क्षणभंगुर संसार काँच के समान है, जहाँ एक वही (ईश्वर का) अपार रूप (सभी वस्तुओं में) प्रतिबिम्बित हो रहा है-झलक रहा है।
बुधि अनुमान प्रमान स्रुति किऐं नीठि ठहराइ।
सूछम कटि पर ब्रह्म की अलख लखी नहि जाइ॥682॥
स्रुति = श्रुति = वेद, कान। नीठि = मुश्किल से। ठहराइ = निश्चित होती है। सूछम = सूक्ष्म, बारीक। अलख अ जो देखा न जा सके। पर = भाँति, समान।
नायिका की कटि ब्रह्म की भाँति अत्यन्त सूक्ष्म है, अलख है, वह देखी नहीं जा सकती-समझ में नहीं आ सकती। बुद्धि द्वारा अनुमान करने और वेदों के प्रमाण मानने (कानों से सुनने) पर भी वह मुश्किल से समझ पड़ती है।
तौ लगु या मन-सदन मैं हरि आवैं किहिं बाट।
बिकट लटे जौ लगु निपट खुलैं न कपट-कपाट॥683॥
सदन = घर। बाट =राह। निपट बिकट जटे = अत्यन्त दृढ़ता से जड़े हुए। कपट = छल, प्रपंच, दम्भ। कपाट = किवाड़।
तबकि इस मन-रूपी घर में ईश्वर किस राह से आवें, जब तक कि (इसमें) अत्यन्त दृढ़ता से जड़े हुए कपट-रूपी किवाड़ न खुल जायँ-मन निष्कपट न हो जाय।
या भव-पारावार कौं उलँघि पार को जाइ।
तिय-छबि-छायाग्राहिनी ग्रहै बीच ही आइ॥684॥
भव = संसर। पारावार = समुद्र। उलँघि = लाँघकर। तिय-छबि = स्त्री की शोभा। छाया ग्राहिनी = लंका-द्वीप के पास समुद्र में रहनेवाली रामायण-प्रसिद्ध ‘सिंहिका’ नामक राक्षसी, जो आकाश में उड़ने वाले जीवों की छाया पकड़कर उन्हें खींच लेती थी- (”निसिचरि एक सिंधु महँ रहई, करि माया नभ के खग गहई“-तुलसीदास)। ग्रहै =पकड़ लेती है। बीच ही = जीवनकाल के मध्य (युवावस्था) में ही।
इस संसार-रूपी समुद्र को लाँघकर कौन पार जा सकता है?(क्योंकि) स्त्री की शोभा-रूपी छायाग्रहिणी बीच में ही आकर पकड़ लेती है- (स्त्री का सौन्दर्य युवावस्था में ही ग्रस लेता है)
भजन कह्यौ तातैं भज्यौ भज्यौ न एकौ बार।
दूरि भजन जातैं कह्यौ सो तैं भज्यौ गँवार॥685॥
भजन = (1) सुमिरन (2) भागना। भज्यौ = (1) भाग गये (2) भजन किया। तातैं = उससे। जातैं = जिससे।
जिसका भजन करने को कहा (जिसका भजन करने के लिए मातृगर्भ में वचन दिया), उस (ईश्वर) से तू दूर भागा, एक बार भी उसे नहीं भजा-नहीं सुमिरा। और, जिससे दूर भागने को कहा, (जिससे बचे रहने का वादा किया) ऐ गँवार, उसी (माया-मोह) को तूने भजा- उसी में तू अनुरक्त हुआ।
पतवारी माला पकरि और न कछू उपाय।
तरि संसार-पयोधि कौं हरि नावैं करि नाउ॥686॥
पतवारी = पतवार। नावैं = नाम को ही। पयोधि = समुद्र।
दूसरा कोई उपाय नहीं। माला-रूपी पतवार को पकड़कर और ईश्वर के नाम की ही नौका बनाकर इस संसार-रूपी समुद्र को पार कर जाओ।
यह बिरिया नहि और की तूँ करिया वह सोधि।
पाहन-नाव चढ़ाई जिहिं कीने पार पयोधि॥687॥
बिरिया = वेला, समय। करिया = कर्णधार, मल्लाह। सोधि = खोजकर। पाहन = पत्थर। पयोधि = समुद्र।
यह दूसरे की बेर नहीं है-(इस अन्तिम अवस्था में कोई दूसरा मदद नहीं कर सकता), तू उसी मल्लाह को खोज, जिसने पत्थर की नाव पर चढ़ाकर समुद्र को पार कराया था।
नोट - श्रीरामचन्द्रजी पत्थर का पुल बनाकर अपनी मर्कटसेना को लंका ले गये थे। उन्हीं का नाम भव-सागर सेतु है।
दूरि भजत प्रभु पीठि दै गुन-बिस्तारन-काल।
प्रगटत निर्गुन निकट ह्वै चंग-रंग गोपाल॥688॥
भजत = भागना। पीठि दै = विमुख होकर। गुन (1) गुण (2) तागा। निर्गुन = (1) गुण-रहित (2) बिना तागे का। चंग = पतंग, गुड्डी। रंग = समान।
गोपाल (की लीला) गुड्डी के समान है। गुण-विस्तार करने के समय-अपने को गुणवान् समझने के समय-वह प्रभु पीठ देकर दूर भागता है, (ठीक उसी तरह, जिस तरह ‘गुण’-तागा बढ़ाने पर गुड्डी दूर भागती है), और निर्गुण होते ही-अपने को तुच्छातितुच्छ समझते ही-वह (ईश्वर) निकट ही प्रकट हो जाता है (जिस तरह गुण-हीन-तागा बिना-हो जाने पर गुड्डी निकट आ जाती है।)
जात-जात बितु होतु है ज्यौं जिय मैं सन्तोष।
होत-होत जौं होइ तौ होइ घरी मैं मोप॥689॥
जात-जात = जाते-जाते, जाते समय। बित = धन। मोष = मोक्ष।
धन के जाते समय जिस प्रकार मन में सन्तोष होता है, अगर (धन) के आते समय भी उसी प्रकार (सन्तोष) हो, तो एक घड़ी में ही (अथवा, घर ही में) मोक्ष मिल जाय।
ब्रजवासिनु को उचित धनु जो धन रुचत न कोइ।
सुचितु न आयौ सुचितइ कहौ कहाँ तैं होइ॥690॥
सुचितइ = निश्चिन्तत, शान्ति।
जो और कोई धन तुम्हें नहीं रुचता है (वहाँ तक तो ठीक है मगर) व्रजवासियों का उपयुक्त धन (श्रीकृष्ण) अगर हृदय में नहीं आया, तो कहो, शान्ति किस प्रकार हो सकती है?