भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

बिहारी सतसई / भाग 8 / बिहारी

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

ऐंचति-सी चितवनि चितै भई ओट अलसाइ।
फिर उझकनि कौं मृगनयनि दृगनि लगनिया लाइ॥71॥

ऐंचति-सी = खींचती हुई-सी, चित्ताकर्षक, चितचोर। चितबनि = दृष्टि, नजर। चितै = देखकर। दृगनि = आँखों का। लगनिया = लगन, चाट। अलसाइ = जँभाई लेकर, उभाड़ दिखाकर अथवा मन्द गति से।

(चित्त को) खींचती हुई-सी नजरों से देख वह अलसाकर (आँख से) ओट तो हो गई; किन्तु उस मृगनयनी ने (उस समय से) बार-बार उझक-उझककर देखने की लगन (मेरी) आँखों में लगा दी-तब से बार-बार मैं उझक-उझककर उसकी बाट जोह रहा हूँ।


सटपटाति-सी ससिमुखी मुख घूँघट-पटु ढाँकि।
पावक-झर-सी झमकिकै गई झरोखौ झाँकि॥72॥

पावक झर = आग की लपट। सटपटाति-सी = डरती हुई-सी। झमकिकै = नखरे की चाल से, गहनो की झनकार करके, चपलता से।

डरती हुई-सी-वह चन्द्रबदनी (अपने) मुख को घूंघट से ढँककर अग्नि की लपट-सरीखी चंचलता के साथ झरोखे से झाँक गई।

नोट - भाव यह है कि अपने गुरुजनों के डर से वह मुख पर आँचल डालकर झटपट खिड़की पर आई और (नायक को) देखकर चली गई।


लागत कुटिल कटाच्छ सर क्यौं न होहिं बेहाल।
कढ़त जि हियहिं दुसाल करि तऊ रहत नटसाल॥73॥

कुटिल = तिरछे, टेढ़े। कटाक्ष = तीक्ष्ण दृष्टि, बाँकी-तिरछी नजर। कढ़त = निकलना। हियो = हृदय। दुसाल = दो भाग, आरपार। तऊ = तो भी। नटसाल = काँटे का वह हिस्सा जो काँटा निकाल लेने पर भी टूटकर अन्दर ही रह जाता है।

तिरछे कटाक्ष-रूपी (चोखे) बाण के लगने से (लोग) क्यों न व्याकुल हों? यद्यपि (बाण) हृदय को आरपार करके निकल जाता है, तथापित उसकी नुकीली गाँसी की कसक (पीड़ा) रह ही जाती है।


नैन-तुरंगम अलग-छबि-छरी लगी जिहिं आइ।
तिहिं चढ़ि मन चंचल भयौ मति दीनी बिसराइ॥74॥

तुरंगम = चंचल घोड़ा। अलग = लट। छरी = कोड़ा। बिसराय दीनी = बिस्मृत कर दिया, भुला दिया।

नेत्र-रूपी घोड़े, जिन्हें लट की शोभा-रूपी छड़ी आकर लगी है- जो नायिका की लट-रूपी चाबुक खाकर उत्तेजित हुए हैं- उन (नेत्र-रूपी घोड़ों) पर चढ़कर मेरा मन चंचल हो गया है और उसने मेरी बुद्धि नष्ट कर दी है।


नीचीयै नीची निपट दीठि कुही लौं दौरि।
उठि ऊँचै नीचै दियौ मन-कुलंग झपिझोरि॥75॥

निपट = एकदम। डीठि = दृष्टि, नजर। कुही = एक पक्षी, जो बाज की जाति का होता है। लौं = समान। कुलंग = कलबिंक = चटका = गोरैया, बगेरी। उठि ऊँचै चढ़ मेरे मन-रूपी कुलंग को छोपकर और झोरकर नीचे गिरा दिया।

नोट - कुही पक्षी शिकार को पकड़ने के लिए पहले तो नीचे-ही-नीचे उड़ता है, फिर एकबारगी ऊपर उड़ श्किार पर भीषण रूप से टूट पड़ता और उसे झकझोर नीचे गिरा देता है। लज्जाशीला नायिका की उड़नबाज नजर की भी यही गति है-रसज्ञ पाठक जानते हैं!


तिय कित कमनैती पढ़ी बिनु जिहि भौंह-कमान।
चल चित-बेझैं चुकति नहिं बंक बिलोकनि बान॥76॥

कित = कहाँ। कमनैती = तीर चलाने की कला, बाण-विद्या। जिहि = ज्या = डोरी, प्रत्यंचा। चल = चंचल। बेझै = निशान, लक्ष्य, लक्ष्य। बंक = टेढ़ा। बिलोकनि = चितवन, दृष्टि।

इस स्त्री ने यह बाण-विद्या कहाँ पढ़ी कि बिना डोरी के भौंह रूपी धनुष और तिरछी दृष्टि-रूपी बाण से चंचल चित्त-रूपी निशाने को बेधने से नहीं चूकती?


दूज्यौ खरै समीप कौ लेत मानि मन मोदु।
होत दुहुन के दृगनु हीं बतरसु हँसी-विनोदु॥77॥

(नायक-नायिका दोनों) दूर-दूर खड़े होने पर भी निकट होने का आनन्द मन में मान लेते हैं-यद्यपि दोनों दूर-दूर खड़े हैं तथापित निकट रहकर सम्भाषण करने का आनन्द अनुभव कर रहे हैं; क्योंकि दोनों की आँखों (इशारों) से ही रसीली बातचीत, दिल्लगी और चुहल हो रही है।


छुटै न लाज न लालचौ प्यौ लखि नैहर-गेह।
सटपटात लोचन खरे भरे सकोच सनेह॥78॥

प्यौ = प्रियतम। खरे = अत्यन्त। नैहर = मायके, पीहर। सटपटात = विक्षिप्त, बेचैन हो रहे हैं।

पति को अपने मायके में देखकर न तो (उन्हें भर नजर देखने के लिए) लाज छूटती है और न (देखने का) लालच ही छोड़ते बनता है। यों संकोच और प्रेम से परिपूर्ण उस नायिका के नेत्र अत्यन्त व्याकुल हो रहे हैं।

नोट - इस दोहे में स्वाभाविकता खूब है।


करे चाह-सौ चुटकि कै खरै उड़ौहैं मैन।
लाज नवाएँ तरफरत करत खूँद-सी नैन॥79॥

चुटकि कै = चाबुक मारकर। उड़ौहैं = उड़ाकू, उड़ान भरनेवाला। मैंन = कामदेव। खूँद = जमैंती, घोड़े की ठुमुक चाल।

कामदेव ने चाह का चाबुक मारकर नेत्रों को बड़ा उड़ाकू बना दिया है। किन्तु लाज (लगाम) से रोके जाने के कारण उसके नेत्र (रूपी-घोड़े) तड़फड़ाकर जमैती-सी कर रहे हैं।

नोट - जब घोड़े को जमैती सिखाई जाती है, तब एक आदमी पीछे चाबुक फटकारकर उसे उत्तेचित करता रहता है और दूसरा आदमी उसकी लगाम कसकर पकड़े रहता है। यों घोड़ा पीछे की उत्तेजना और आगे की रोकथाम से छटपटाकर जमैती करने लगता है।


नाबक-सर-से लाइकै तिलकु तरुनि इत ताँकि।
पावक-झर-सी झमकिकै गई झरोखा झाँकि॥80॥

तिलकु = टीका। तरुनि = नवयुवती। पावक-झर = आग की लपट। झरोखा = खिड़की। झमकिकै = चंचल चरणों से। नावक-सर = एक प्रकार का छोटा चुटीला तीर, जो बाँस की नली के अंदर से चलाया जाता है, ताकि सीधे जाकर गहरा घाव करे।

चुटीले तीर के समान (ललाट पर) तिलक लगाकर उस नवयुवती ने इस ओर देखा और आग की ज्वाला-सी चंचलता के साथ खिड़की से झाँक गई।

नोट - ‘नावक के तीर’ बिहारी के दोहों के विषय में प्रसिद्ध है-

सतसैया के दोहरे जनु नावक के तीर।
देखत में छोटे लगैं बेधैं सकल सरीर॥