भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

बीं सागण भौम / मदन गोपाल लढ़ा

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज


जकी जमीं माथै
बै चुगै धातु रा टुकड़ा
कदी हुवता बठै-
बां रा खेत।

खेत में
बै भेळो करता ग्वार
काढता खळो
चरावता रेवड़
अर बाजता किरसाण।

बगत परवाण
बीं सागण भौम माथै
बै भंवता फिरै
भूखा-तिरसा
लोखंड-तांबो-पीतळ चुगता
मजूर बण'र
जिणरी धाड़ी सूं
मस्सां हुवै पेट ल्याळी।

आ कविता है
अेक बावळै कवि री।

आंकड़ा बतावै-
सात सूं आठ फीसदी हुयगी
देस री विकास दर,
शेयर बजार रो सेंसेक्स
मना रैयो है दिवाळी!