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बीच का आदमी / शरद कोकास

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दबी इच्छाओं का बोझ
पीठ पर लादे
पसीने की नदी में
वह ढूँढ़ता है ठहराव
अभी आएगा कुछ देर में
छाते, टोपी और छड़ी की
सुनियोजित सुविधा-प्राप्त
एक साफ़-सुथरा आदमी
दागते हुए गालियाँ
उसके मालिक का
कवच बना यह आदमी
झेल लेगा
आक्रोश के वार
शिकायतों के आक्रमण
उसके रक्त में बसा
वफ़ादारी का नमक
हस्तिसेना की तरह
उलटे पाँव रौंद डालेगा
मुक्ति का सुखद स्वप्न
यह और वह
दोनों चल रहे हैं
विवशताओं के अपने-अपने वृत्त में
सदियों से अनभिज्ञ हैं
इस क्रूर खेल का नियामक
पूरी तरह सुरक्षित है
अपने प्रभामंडल के भीतर।