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बीज-संवेदन- 1 / शेषनाथ प्रसाद श्रीवास्तव

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पंछी से मैंने
     सपनीले पंख माँगे
     और मैं दिगंत में उड़ चला
     मैं उड़ा और खूब उड़ा
     उड़ने के साथ
     मैं फैलता भी चला गया.

     मेरी अनुभूतियों का दायरा
     विराट होता गया
     पर मैंने महसूस किया
     मेरी बुनियादी उलझनो में
     कोई कमी नहीं आई
     मैं अशांत का अशांत ही बना रहा.

     मैंने समझा
     मैं विराट का छोर पकड़ने ही वाला हूँ
     मगर देखा
     विराट और विराट हो गया है
     फिर बुद्धि मुझे टीसने लगी
     अंतर का बल
     जो मेरे पैरों के टिकाव का संबल था

    छीजता नजर आया
     मेरा फैलाव मेरे अस्तित्व के लिए
     संकट-सा लगने लगा
     मैं अपनी सीमा को
     खोना नहीं चाहता था
     अपनी सारी गतिविधियों की
     वर्जना न कर
     मैंने उन्हें अपने ध्यान में ले लिया
     फिर तो जैसे क्रांति घट गई
     अगले क्षण अब मैं
     दिगंत का विस्तार नहीं था
     इस उलट क्रिया में
     मैंने एक अजूबा देखा
     और देखते ही ठक से रह गया
     जितना ही गहरे उतरने लगा
     उतना ही मैं ऊपर उठने भी लगा
     ठीक एक जीवंत वृक्ष की तरह
     तब से लगातार
     मैं अपनी ही गहराइयों में
     उतरता जा रहा हूँ
     मगर ये गहराइयाँ
     मुझे भयभीत नहीं करतीं
     मेरे अकेले की यह उड़ान
     मेरे अकेले तक की दूरियाँ
     नापती जा रही है
     दूरी बढ़ तो नहीं रही
     पर दूरियाँ नप रहीं हैं.

( यह कविता मैंने ओशो को 24.7.1984 को रजनीशपुरम, ओरेगाँव, अमेरिका भेजी था. ओशो उन दिनों मौन में थे. मा आनंद शीला ने इसे उन्हें न दे स्वयं इसका उत्तर दिया.)-- कवि