बीजमन्त्र (मुक्तक) / रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’
1
ज़ख्मों पे भी ज़ख्म खाए हुए हैं
फिर भी हम सब कुछ छुपाए हुए हैं।
दग़ाबाज़ कहते हमें ही बेवफ़ा
उनके गुनाह सिर उठाए हुए हैं ।
2
ठोकरें खाता रहा
गीत मैं गाता रहा
कोई सुनता न मुझे
व्यर्थ इतारता रहा।
3
तुम्हें आज अपने सीने से लगा लूँ मैं।
ताप सभी तेरे सीने में छुपा लूँ मैं।
लगे न किसी की बुरी नज़र कभी तुझको।
बीजमन्त्र पढूँ हर बला से बचा लूँ मैं।
4
दुर्भावों की नदिया तरकर, कब कोई पार गया
डूब गया अधबीच भँवर में, जीवन भी हार गया।
मन तो इक मन्दिर था प्यारे, कुछ दीप जलाने थे
आग लगाकर नफ़रत की, जनमों का सार गया।
5
हम कैसे कहें कि निशदिन तुम्हारी याद आती है।
बसी हो मन-प्राण में ऐसी छवि ज्योति जगाती है।।
गले तुमको लगाया था, अभी तक रोम हैं सुरभित।
यही थी साध जनमों की तुमने दी जो थाती है।।