भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

बीतते हैं हम / सुदर्शन वशिष्ठ

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

नही6 दिखता सूरज सरकता हुआ
देखते-देखते तय कर लेता है मगर
करोड़ों मील सफर।

रेत में गड़ी लकड़ी
पेड़-पौधे या आदमी भी
नहीं देखते अपना साया कभी
साया जो पैमाना है।

मँजा हुआ जादूगर है समय
छिपा हुआ खुद
दिखाता है करतब अपने
अपने बीतने का नहीं देता पता
बीतता है केलब आदमी
समय नहीं बीतता कभी
वह रोज़ सुबह जी उठता है पुनः
रोज़ मरता है
रोज़ जी उठता है उतना ही मासूम
उतना ही जवान

रोज़ रहता है वैसे का वैसा
जादूगर के आरे से क़टा आदमी
उसी क्षण
हँसता हुआ खड़ा हो जाता जैसे
बीतते हैं हम हर क्षण
हम नहीं ।