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बीस साल बाद / जीवनानंद दास / मीता दास

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बीस साल बाद अगर उससे फिर मुलाकात हो जाये!
फिर बीस साल बाद....
हो सकता है धान के ढेर के पास
कार्तिक माह में.....
तब संध्या में कागा लौटता है घर को.... तब पीली नदी
नरम-नरम सी हो आती है सूखी खांसी सी गले में.... खेतों के भीतर!

अब कोई व्यस्तता नहीं है,
और न ही हैं और भी धान के खेत,
हंसों के नीड़ के भूँसे, पंछियों के नीड़ के तिनके बिखरा रहे हैं,
मुनिया के घर रात उतरती है और ठण्ड के संग शिशिर का जल भी!

हमारे जीवन का भी व्यतीत हो चुके हैं बीस-बीस, साल पार....
हठात पगडंडी पर अगर तुम मिल जाओ फिर से!

शायद उग आया है मध्य रात में चाँद
ढेर सारे पत्तों के पीछे
शिरीष अथवा जामुन के,
झाऊ के या आम के ;
पतले-पतले काले-काले डाल-पत्ते मुंह में लेकर
बीस सालों के बाद यह शायद तुम्हे याद नहीं!

हमारा जीवन भी व्यतीत हो चुका है बीस-बीस, साल पार ....
हठात पगडंडी पर अगर तुम मिल जाओ फिर से!

शायद तब मैदान में घुटनो के बल उल्लू उतरता हो
बबूल की गलियों के अंधकार में
पीपल के या खिड़की के फांकों में
आँखों की पलकों की तरह उतरता है चुपचाप,
थम जाये अगर चील के डैने.....

सुनहले-सुनहले चील-कोहरे में शिकार कर ले गये हैं उसे....
बीस साल बाद उसी कोहरे में पा जाऊँ अगर हठात तुम्हे!