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बुक्का फाड़ समय रोता है / गीता पंडित
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बुक्का फाड़ समय रोता है
लेकिन कान
सभी बहरे
चीख पुकारें
नब्ज थामकर
पल को आकर दहलाती हैं
मुंह ढाँपे दिन रात पड़े हैं
सुबह कहाँ
अब संग गाती हैं
कितनी क्रोधित श्वासें हैं जो
चलतीं अब गहरे-गहरे
लेकिन कान
सभी बहरे
बिस्तर पर
बीमार पड़ा अब
कितना दुबला लोकतंत्र है
हिटलर बन बैठा है कैसा
भोग लगाता
राजतन्त्र है
प्रश्न सभी अब लग कतार में
अंखियों में ठहरे-ठहरे
लेकिन कान
सभी बहरे।