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बुख़ार का गीत / यश मालवीय
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हल्का-हल्का बुख़ार अच्छा है
चाय का इन्तज़ार अच्छा है
हल्का-हल्का बुख़ार अच्छा है
साँस में सज रहे हैं
गुड़-तुलसी
एक छवि, विहँसकर,
मिली हुलसी
चूड़ियों का सितार अच्छा है
गन्ध अदरक की,
चाय पत्ती की
हो गई शाम,
दियाबत्ती की
धुंध के आर-पार अच्छा है
एक क़िस्सानुमा
उबलता है
छटपटाता नशा,
सम्भलता है
ये नशा बार-बार अच्छा है
नींद के बीच ही
सुबह जागे
ये पता क्या
कि कौन कब जागे ?
टूटकर भी ख़ुमार अच्छा है ।