भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
बुझते-बुझते ख़ुद से / नारायण सुर्वे
Kavita Kosh से
|
झूठ बोलकर ज़िन्दगी को कोई भी सँवार सकता है
ऐसे निमंत्रण हमें भी आए, नहीं ऐसा नहीं,
ऐसी कितनी ही ऋतुएँ सीटी बजाती हुई गईं घर पर से,
शब्दों ने आँख उठाकर उधर देखा ही नहीं- ऐसा भी नहीं
शास्त्रों ने गोपनीय रखा अर्थ, हम तालियाँ ही बजाते रहे,
ज़िन्दगी का अनुवाद करते रहो, ऐसा कहने वाले काफ़ी थे- नहीं ऐसा नहीं
ईमान ख़रीदने वाली दुकानें जगह-जगह पर
दिमाग़ को रेहन रखने वाले महाश्य नहीं हैं ऐसा नहीं
ऐसे बेईमान प्रकाश में एक बानी सुरक्षित रूप से ले जाते समय
बुझते-बुझते ख़ुद को सँवार नहीं पाया- ऐसा भी नहीं ।
मूल मराठी से अनुवाद : सूर्यनारायण रणसुभे