भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
बुतों के दिल जुबाँ / अर्चना कुमारी
Kavita Kosh से
गिरवी रखे हुए घर
और बिकती ज़मीनों पर
एक बुत रखा गया है
खानाबदोश हो चुके लोग
प्रेम में हैं शायद
प्रतिदान में स्वीकृति की प्रत्याशा लिए
एकटक देखती हैं कई जोड़ी आंखें
उठी गर्दन झुकते ही
सहज हो जाती हैं पलकें
सदियों से बुतों के पास
केवल मन था
सपने थे
कंठ में स्वर नहीं था
और तेवर में बगावत नहीं थी
बुतों के हिस्से में आए
झुके लोगों के लिए
बुत बने रहना
बुतों का सजदा है
बुतों के सीने में दिल होता है
जबाँ नहीं होती !