बुरके वाली औरत / मंजरी श्रीवास्तव
लक्ष्मीनगर रेडलाइट पर
न जाने कब से बैठती है
एक बुरके वाली औरत
बुरके से बाहर निकले उसके हाथ
हरदम तोड़ते रहते हैं
कुछ न कुछ
कभी लंबी घास
कभी पापड़
और कभी जंगली फूल
बुर्के से झांकती उसकी आंखें
कंेद्रित रहती हैं
टूटती हुई घास पापड़ और फूलों पर
उसकी आंखें कभी देख नहीं पाईं कि
बेशक घास और फूलों को
कोई फर्क न पड़ा हो
पर जब भी वह पापड़ तोड़ती है
पापड़ बेचने वाले के दिल के
होते हैं टुकड़े हजार
वह वर्षों से कभी इसी बुरके वाली की बगल में बैठ
तो कभी
रेडलाइट पर रुकने वाली बसों में चढ़कर
बेचता है पापड़
बताता वह
‘मैडम जी आपको पता है
यह बुरके वाली पगला गई है
पर आप ही बताइए...
किसी से प्यार करने वाला
किसी का इंतजार करने वाला
क्या होता है पागल?
शायद हो भी सकता हो
मैं जानता हूं
प्यार में या इंतजार में ही
यह बुरके वाली पागल क्यों बन गई
बरसों पहले किसी के प्यार में
गिरफ्तार हो
भाग आई थी जब यह दिल्ली
वह उसे यहां छोड़ न जाने कहां चला गया था
यह कहकर
‘जब तक तू यह घास तोड़ेगी
मैं आ जाऊंगा
बस अभी गया और आया...
कभी नहीं आया वह
यह घास तोड़ती रह गई
फिर फूल और पापड़
और न जाने क्या-क्या तोड़ा इसने
पर टूटी नहीं यह
यह आज भी तोड़ रही है
घास फूल और पापड़...!’