भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

बुरा वक़्त / दिनकर कुमार

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

होंठ फटकर बहता है ख़ून
विषाद दौड़ता है धमनियों में
चौबीस घण्टे
सुलगती रहती हैं आंखें

बुरा वक़्त है
पैरों में चुभती है
फटे हुए जूते की कील
वेष बदलकर कर्ज़दाता
हरेक मोड़ पर दामन पकड़ते हैं

बुरा वक़्त है

बैरंग चिट्ठियों में
आती हैं बुरी ख़बरें
हर दस्तक कलेजे को
ज़ख़्मी कर देती है

बुरा वक़्त है

कीचड़ से सनी हुई पतलून
सिगरेट की राख़ से
कमीज में सुराख़
फटी हुई जुराबें
जेब में ज़रूरत की चीज़ों की सूची

बुरा वक़्त है

बुख़ार से तपती है
फूल जैसी कोमल बच्ची
रात भर सिहरता रहता हूं
सर्दी की बारिश में
भीग रहे अनाथ बच्चे की तरह

बुरा वक़्त है

बुदबुदाना चाहता हूं कविता
पर कविता की जगह
मुँह से निकलते हैं
अजीब शब्द जैसे
रोटी, किरासन, दवा...

बुरा वक़्त है

मुस्कराने की कोशिश में
इस कदर बिगड़ जाता है चेहरा
लोग विदूषक समझ लेते हैं
दयनीय भंगिमा पर
ठहाके लगाते हैं

बुरा वक़्त है

शव की तरह सर्द
आत्मदया से झुका हुआ सिर
दर्द से बिलबिलाते हुए भी
चुप्पी साधनी पड़ती है

बुरा वक़्त है

गणित की सीढ़ियाँ चढ़ता हूँ
फिसलता हूँ
चोट खाकर भी
बेहयाई के साथ कहता हूँ--
कुछ हुआ नहीं

बुरा वक़्त है

युद्धविराम खत्म होने से पहले
ही आक्रमण शुरू हो जाता है
दुख को
युद्ध की नीतियों से
कोई लेना-देना नहीं होता

बुरा वक़्त है

पत्नी के चेहरे पर
अपने दहशतज़दा चेहरे की
परछाई देखता हूँ
जिसकी ख़ामोशी तेज़ाब की तरह
फैल जाती है समूचे वजूद पर

बुरा वक़्त है

आशावाद का टूटा हुआ आइना
विकृत तस्वीर दिखाता है
हताशा के जबड़े में अपने
सपनों को छटपटा कर
दम तोड़ते देखता हूँ

बुरा वक़्त है

इसीलिए उदासी
मेरी बाँहों में बाँहें डालकर
अँधेरे रास्ते पर
चल रही है
इसीलिए
अदृश्य शत्रुओं के शिविर में
उत्सव का माहौल है और
चक्रव्यूह का सातवाँ द्वारा बन्द है ।