भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

बुलडोज़र (पाँच कविताएँ) / शरद कोकास

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

एक
बुलडोज़र चलाते
दो मेहनतकश हाथों को
संचालित करता है एक मस्तिष्क
स्वयं आदेशित होता
किसी और मस्तिष्क से

हमारी लड़ाई बुलडोज़र से नहीं
उस मस्तिष्क से है
जो इस सुन्दर सजीली दुनिया को
बदल देना चाहता है एक बदसूरत मलबे में

बुलडोज़र तो महज़ एक मशीन है ।

दो

इस्पात की एक विस्तारित भुजा है

बुलडोज़र का रीपर
जो उठाना चाहता है बड़ी-बड़ी चट्टानें
जड़ों सहित पेड़ और भूखण्ड
खनन, भूमिशोधन जैसे काम
उसे अच्छे लगते हैं

वह कदापि नहीं उठाना चाहता
बच्चों की दूध की बोतलें
खिलौने और स्कूल की किताबें
रसोई के बर्तन और गुड़िया की फ्रॉक ।

तीन

मेहनतकश हाथों की रेखाओं में

बसे थे कुदाल फावड़े और घमेले

फिर वह आया
समस्त मानव
और भौतिक संसाधनों पर
कब्ज़ा जमाता हुआ
मिटा गया समस्त रेखाएँ
लील गया
सपने इच्छाएँ और जिजीविषा

बुलडोज़र के अविष्कार का दोष
आधुनिकता पर मढ़ना काफ़ी नहीं ।

चार

कोलतार की सड़कों पर

अतीत में देखे गए
जंज़ीरों वाले
बुलडोज़र के पहियों के निशान
अवचेतन से मिटे नहीं हैं

भविष्य को रौंदते हुए वे पहिये
जिनके घर की दीवारों पर चढ़ गए
उनके मन पर बने निशान
किसे याद रहेंगे

पाँच

यह जो नन्हा सा मोबाइल है
एक बुलडोज़र का प्रतिरूप ही तो है
जिसे चलाते हुए
भेज सकते हैं आप
सकारात्मक सन्देश
सुन्दर, सुखी दुनिया के निर्माण के लिए

इसी बुलडोज़र से ध्वस्त कर सकते हैं आप
प्रेम, सौहार्द, भाईचारे का सुदृढ़ संसार ।