भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

बूँदे / अरविन्द श्रीवास्तव

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

वक्त बूँदों के उत्सव का था
बूँदें इठला रही थी
गा रही थीं बूँदें झूम-झूम कर
थिरक रही थीं
पूरे सवाब में

दरख्तों के पोर-पोर को
छुआ बूँदों ने
माटी ने छक कर स्वाद चखा
बूँदों का

रात कहर बन आयी थी बूँदे
सबेरे चर्चा में बारिश थीं
बूँदें नहीं