बूट / रुडयार्ड किपलिंग / तरुण त्रिपाठी
{..इस कविता में किपलिंग युद्धकाल में इंग्लैंड के परिदृश्य को अभिव्यक्त करते हैं जब हर समय हर जगह केवल सैनिकों के बूटों की आवाज़ सुनाई देती है..}
हम हैं पग–पटर–पटर–पटर–पटपटा रहे पूरे अफ्रीका भर
पग–पग–पग–पग–खटपटा रहे पूरे अफ्रीका भर
(बूट–बूट–बूट–बूट–ऊपर नीचे फिर चले जा रहे!)
इस समर से कभी मुक्ति नहीं है!
सात–छः–ग्यारह–पांच–नौ-और-बीस मील आज
चार–ग्यारह–सत्रह–बत्तीस बीते कल
(बूट–बूट–बूट–बूट–ऊपर नीचे फिर चले जा रहे!)
इस समर से कभी मुक्ति नहीं है!
मत–मत–मत–मत–देखो आगे क्या है तुम्हारे
(बूट–बूट–बूट–बूट–ऊपर नीचे फिर चले जा रहे!)
लोग–लोग–लोग–लोग–लोग देख के पागल हुए जा रहे
और इस समर से कभी मुक्ति नहीं है!
यत्न–यत्न–यत्न–यत्न–कुछ और सोचने का
ओ–मेरे–ईश्वर–बचाओ–मुझे होने से बावला
(बूट–बूट–बूट–बूट–ऊपर नीचे फिर चले जा रहे!)
इस समर से कभी मुक्ति नहीं है!
गिन–गिन–गिन–गिन–कारतूस उन पेटियों में
अगर–तेरी–आँखें–झुकीं–वे आ जाएंगे ऊपर तेरे
(बूट–बूट–बूट–बूट–ऊपर नीचे फिर चले जा रहे!)
इस समर से कभी मुक्ति नहीं है!
हम–सह–सकते–हैं–भूख, प्यास, और थकान
लेकिन–नहीं–नहीं–नहीं–नहीं देखना वह चिर दृश्य–
बूट–बूट–बूट–बूट–ऊपर नीचे फिर चले जा रहे!
और इस समर से कभी मुक्ति नहीं है!
यह–दिन–में–उतना–बुरा–नहीं, साथियों के होने से
लेकिन–रात–लाती–है–लंबा–सिलसिला–चालीस हज़ार लाखे
बूट–बूट–बूट–बूट–ऊपर नीचे फिर चले जा रहे!
इस समर से कभी मुक्ति नहीं है!
मैंने–छः–हफ्ते–कदमताल–किया–है दोजख में और गवाही देता हूँ
यह–नहीं–है–आग–शैतान–अंधकार या और कुछ भी
बस बूट–बूट–बूट–बूट–ऊपर नीचे फिर चले जा रहे!
और इस समर से कभी मुक्ति नहीं है!