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बूढ़-पुरनियाँ / मुनेश्वर ‘शमन’
Kavita Kosh से
लड़इत–भिड़इत जिनगी के जंग में,
जिनकर बीतल उमर हे।
ऊहे दरद के कथा बुनऽ हथ,
जब से झुकल कमर हे।
देख –रेख में ढेरमनी के,
जे झोंकलन तन-मन धन।
पढे-लिखे आउ जोग बने सब
रहलय जिनका खक्खन।
छटपटवइत -रिरआवइत,
उनखे काया अब जरजर हे।
अजब हाल हे कि जेकरे ला
ऊ जलमो भर मरला।
एक-एक कर सब कह बैठइ,
तूँ की करबे करला।
कउन चलन ई कहल जाय की,
कतना कमी कसर हे।
भइया! अझका दौरे अइसन
मतलब भर के नाता।
बूढ़-पुरनिया के जीवन में
लगबइ दु:ख के तांता।
सबके रहला पर भी लगय
कि कोय-कहाँ इनकर हे ?
ई नञ भूले नयकी पीढ़ी
कि ओकरो दिन अइतय।
कसगर-रसगर बाँक उमरिया
बिला-हेरा जब जइतय।
हुनको पता तऽ चलतय कि
ई कइसन घड़ी-पहर हे ?