भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
बूढ़ी वेश्या / दामिनी
Kavita Kosh से
					
										
					
					 जैसे ही उस ग्राहक ने 
उस पर से नजर हटा अगली पर बढ़ाई,
वो दांत पीसकर मन-ही-मन बड़बड़ाई, 
पता नहीं इन औरतखोरों को 
क्या चीज भाती है,
आंख बंद करने पर तो 
दुनिया की हर लड़की
एक-सी बन जाती है! 
उस पोपले मुंह वाले बुड्ढे को तो देखो,
जोर नहीं है दम-भर का,
पर उसे भी चाहिए बदन 
सोलहवे सावन का!
वो कोने में बैठा कलमुंहां 
दूर से ही नोट दिखाता है, 
पास जाने पर छूता है यहां-वहां 
पर नोट से पकड़ नहीं हटाता है,
अब ये मुफ्त में ही 
दिल बहलवाना चाहते हैं
तो बीवी को छोड़कर इन गलियों की 
धूल क्यों फांकने आते हैं
सारी जवानी काटी यहीं मैंने 
अब बुढ़ापे में कहां जाऊं?
मुझ पर लेटने को हजार पर 
पर श्मशान तक लेट के जाने को 
मैं अपने लिए चार कांधे कहां से जुटाऊं
	
	