बेजुबान / अशोक कुमार
बचपन की दी गयी नसीहतों में
यह भी था चुप हो जाना
उम्र के आगे
और उम्र के आगे वह किसी ऊँची शिला पर उकेरी मूर्ति की तरह नतमस्तक था
चुप होने का मतलब एक तहजीब को जिन्दा रखना था
और मन में उठती आवाजों को
एक सलीके के लिये बेजुबानी का अमली जामा पहना दिया जाना था
ऐसा तो बिलकुल ही न था
कि खौलते पानी के पतीलॅ को
किसी ढक्कन से दबा दिया जाय हमेशा के लिये
वह बन गया था पतीले के उपर
रखा गया थाल
जो हिल जाता था खुद के भीतर
उफनते उबाल के आगे
जमीन पर खींच दी गयी थी एक रेखा
जिसके पार जाना खतरे की तमाम संभावनाओं से भरा था
वह रेखाओं के पार भेज देना चाहता था उन शब्दों को
जो ककहरे की व्याकरण सम्मत विधियों के भीतर ही बनाये थे उसने
पर जिसमें रेखाओं की ज्वाला से कहीं अधिक धधक और आग थी
कहीं अधिक बेचैनी
जो किसी अनन्य सर्जन की वेदना के उदास रंग भर रहे थे
चटख रंगों का एक सुघड़ सपना अपनी आँखों के आगे पसरी जमीन पर
जमी हुई बर्फ की तरह देखना चाहता था वह
जिसे कभी पिघला सके तो वैसी ही आग
जो बेजुबानी की हदों से आगे जाकर
निकाले गये शब्दों की आग से धधकता हो
फिलहाल एक चुप्पी जो धर दी गयी थी उसकी जुबान के आगे
उस अनुशासन के अनुसंधान में लगा था वह
जो चुप रहने और खौल कर बुदबुदाने से निकले मौन शब्दों को
बेजुबानी की हदों को पार करा सके
उम्र की सारी अड़चनों को तोड़ कर।