बेटी (दोहे) / गरिमा सक्सेना
बेटी-
गुड़िया, कंगन, मेंहदी, नेह भरी बौछार।
बेटी खुशियों से करे, घर आँगन गुलज़ार।।
दादी रोयी याद कर, तब अपना बर्ताव।
पोती ने मरहम दिया, जब पोते ने घाव।।
गुड्डे, गुड़ियां, चूड़ियां, हुईं सभी बेजान।
बिटिया घर से क्या गयी, रूठ गयी है मुस्कान।।
बेटी हरसिंगार है, बेटी लाल गुलाब।
बेटी से हैं महकते, दो-दो घर के ख़्वाब।।
शंख, मँजीरे, झांझ ,ढप, बजे सुरीले साज।
जब भी आई कान तक, बिटिया की आवाज।।
तितली सी उन्मुक्त है, बेटी की परवाज़।
मगर कहाँ वह जानती, उपवन के सब राज़।।
वह जाड़े में धूप सी, वह गर्मी में छाँव।
बेटी से आबाद है, खुशियों वाला गाँव।।
बेटी को नित कोख में, मार रहा संसार।
ऐसे में कैसे मने, राखी का त्योहार।।
दहलीज़ों में क़ैद हैं, कुछ नन्हे से ख़्वाब।
दे दो उनके हाथ में, कापी, कलम किताब।।
दो बेटी के साथ में, बेटों पर भी ध्यान।
कहीं ग़लत संगति उन्हें, बना न दे हैवान।।
बेटी शिक्षित हो अगर, होगा सभ्य समाज।।
सँवरेगा कल भी तभी, जब सँवरेगा आज।।
बेटी के अधिकार में, आये कलम दवात।
इससे अच्छी है नहीं, बेटी को सौगात।।