भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

बेटी / संजीव कुमार 'मुकेश'

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

बेटी हे जिनगी के बड़का इंजोर!
आवे दऽ अँगना न´् ढरकावऽ लोर।

बेटा बने लाट साहब, बेटी बने दाय!
बोलऽ कहीं अइसन होवऽ हई न्याय।
भइये जइसन हमहूँ लगइवऊ खुबे जोर...
आवे दऽ अंगना, न´् ढरकवऽ लोर।

बेटी बने तुलसी अउ बेटा बने पानी,
आज हकी माय कल बन जइवा नानी
अप्पने करेजा खातिर बन जाहऽ चोर...
आवे दऽ अंगना न´् ढरकवऽ लोर।

बाऊ पढ़ावऽ बन जइवो मस्टरनी।
छुतका छोड़ावे ले बनवो नहरनी।
नाम तोहर रोशन करइबो चहूँ ओर...
आवे दऽ अंगना न´् ढरकवऽ लोर।

दहेज तो हे दानव, तो न´् बनऽ कंस,
बेटवे से खाली न´् चलतो तोहर वंश।
एक दने भाय, हम रहवो दोसर छोर...
आवे दऽ अंगना न´् ढरकवऽ लोर।

बेटी अभिशाप न´् इ हो गेल वरदान
सानिया, नेहबाल पर हई देेश के गुमान।
सतरंगी किरनिया पहुँचइवो पोरे-पोर...
आवे दऽ अंगना न´् ढरकवऽ लोर।

बेटी बचावऽ बेटी के पढ़ावऽ,
जनमें जो बेटी, पुआ-पुड़ी पेठावऽ
अँगना में बजे लोरी, पायल झनक-झोर...
आवे दऽ अंगना न´् ढरकवऽ लोर।