भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
बेटी कहे / संजीव 'शशि'
Kavita Kosh से
कोख से बेटी कहे बाबुल सुनो,
जन्म मत दो कोख में ही मार दो॥
क्या करूँगी जन्म लेकर,
मत सुनाओ लोरियाँ।
क्या पता कब टूट जाएँ,
प्रीत की ये डोरियाँ।
जी न पाओ उम्र भर फिर चैन से,
मान लो विनती न इतना प्यार दो॥
जानवर-से आदमी हैं,
पाँव रक्खूँगी जहाँ।
वह जगह तुम ही बता दो,
मैं सुरक्षित हूँ जहाँ।
हर क़दम पर है जहाँ हैवानियत,
मत मुझे ऐसा घृणित संसार दो॥
जी नहीं पाऊँगी मैं,
अभिशप्त जीवन पाप का।
सह नहीं पाऊँगी मैं,
झुक जाये सर जो आपका।
भेज दो मुझको प्रभू की गोद में,
आप मुझको मृत्यु का उपहार दो॥