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बेटी जन्मी है / मधु गजाधर

उतर गयी थी

उन सब के चेहरों की रौनक,
एक अपराधी भाव लिए ..

माँ अपनी बेटी के पिता का

सामना भी न कर पाई
बेटी जन्मी है ...

लज्जा की बात है मुंह तो छिपाना ही पड़ेगा...
समय का परिदा उड़ रहा है... यही आस पास कही ...
आगन में बेटी रो रही है...

भाई के साथ स्कूल जायगी
एक और बेटी ने..

जो अब माँ है अपनी ही बेटी को,
ऊपर से नीचे तक झकझोर कर ,

धकेलते हुए आगन के कोने में पटक दिया है...
कमबख्त..

छोरे से बराबरी करे है..

काट के आँगन में ना गाड़ दूँगी
सहम गई है बेटी...

सोच रही है मैं अभागी क्यों नहीं जान पाई
कैसे बेटा बन कर जन्मते है..

भाई आएगा तो आज जरूर पूछूगी...
समय का परिदा उड़ रहा है यही आप पास कही.....

बेटी को अब घर में नहीं रखा जा सकता है ,
कैसी बाड़ निकाली है..

पन्द्रह बरस की बेटी को

माँ आज भी शर्म से दस साल की बताती है,
रिश्ता आया है.

छोरे की उम्र जयादा है तो क्या...

रे छोरे की क्या उम्र देखी जाती है
पैंतीस बरस के पुरुष से पन्द्रह बरस की मासूम का रिश्ता...

वो भी एक ताने के साथ
"जाओ अपने घर ,अब तो पीछा छोड़ो हमारा ..

तुम निकलो तो तो हम गंगा नहायें"
अपने घर..?

बेटी परेशान सी हो जाती है.

कौन सा घर है हमारा ?..

आज तक तो कभी देखा ही नहीं,
छू छू कर देखती है खिडकियों दरवाजों को ,

फिर दीवार पर सर रख कर रो पड़ती है..
हम तो तुम्ही को अपना घर समझ कर रहली ,

फिर अब कौन से घर जाए के बोलत है
जाओ बोल देओ,भाई बाप के .. की हम के घर से ना निकाले..
बेटी नहीं जानती

दीवारों के कान तो होतें है पर जबान नहीं..
समय का परिंदा उड़ रहा है यही आस पास आँगन में कही,

बेटी अपने घर में आ तो गयी..पर
कभी अपना सा न लगा ये घर
समझ नहीं पाती है वो ...

अगर ये घर उस का है तो क्यों उस का पुरुष
उसे उस के ही घर से बाहर निकाल कर फेकने का भय दिखाता है ,
बहुत बार...

छत पर चले जाने पर,

तो बच्चे के रोने या खाना स्वाद न होने पर
या गीली लकड़ियों से धुआं होने पर
बेटी को जन्म देने पर ,बीमार होने पर..
हर दिन हर बार एक नया कारण और वही पुरानी सजा...

निकल मेरे घर से बाहर..

कमबख्त
समय का परिदा उड़ रहा है यही आस पास कही
बेटी के बेटे बेटियां बड़े हो गए...

कब पल गए कहाँ पल गये
उसे जैसे कुछ याद नहीं ...

याद भी कैसे रख पाती
मातृत्व का सुख मात्र जन्म देने से ही नहीं मिलता...
उसे लगता है है वो माँ कभी बनी ही नहीं...

कोख भर गयी थी बस इतना ही..
बच्चे भी कभी अपने से लगे नहीं...

दादी की भाषा बोलते, पिता सा क्रोध दिखाते
उन में वो सारी उम्र अपना अंश ही ढूँढती रह गयी ...
शायद बिना माँ के अंश के भी संतान जन्मती ही होगी..
वो समझा लेती थी खुद को,

शरीर अब टूटने लगा है, थकान पीछा ही नहीं छोडती ,
खांसते खांसते पसलियाँ दुखने लगी है...
क्या जाने के दिन आ गए...?

क्या जिन्दगी ख़तम होने को आई...?
सर्दियों की रात ..शरीर तर हो गया है पसीने से..
रूक जाओ ..ठहर जाओ...

मुझे मत ले जाओ,
मैंने तो जिन्दगी कभी जी ही नहीं ..

तो ख़तम होने का सवाल कहाँ
फिर एक बार ...बेटी की आवाज,बेटी की सिसकियाँ,बेटी का रुदन..
फिर एक बार कही कोई सुनवाई नहीं...
गीला,ठंडा बेजान शरीर ...रात में ही प्राण निकल गए...
बड़ी किस्मत वाली थी...

सुहागन गयी है...
धूम धाम से अर्थी उठेगी...
बैंड बाजे के साथ..
उस की पसंद की साडी लाओ...

गहन गुरिया लाओ, उसे दुल्हन सा सजाओ,
उसकी पसंद ...?
उसकी भी कोई पसंद थी क्या ..?

सब एक दूसरे का मुह ताकते है..
गहमा गहमी बढ गयी...अरे कोई भर के डिबिया सिन्दूर तो लाओ रे,
उस के मृतक शरीर के माथे पर सिन्दूर की डिबिया उलट दी गयी है...
आओ री छोरियों ..
इस की मांग के सिन्दूर से अपनी मांग भर लो...
सुहागन गयी है...
पति के कन्धों पर जा रही है..
बहुत ही किस्मत वाली थी..
पिछले जन्म में जरूर कोई बड़े पुन्य कर्म किये होंगे
ऐसी किस्मत ..
ऐसे भाग,
पति के सामने सुहागन जाना...
कुआरी और ब्याही सब के बीच
उस की अर्थी के नीचे से निकलने की होड़ सी लग गयी है ,
अर्थी को छू छू कर सब मानता मांग रही है...
जैसी किस्मत भगवान् तुमने इसे दी..
.हमें भी देना...
जिन्दगी भर घर से बाहर फेकने देने वाला पति ..
आज बड़ी धूम धाम से ,गाजे बाजे के साथ उसे घर से बाहर ले जा रहा है...