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बेटे के लिए / राखी सिंह

तारीख़ें बदलती हैं
बढ़ते वर्ष के साथ
बदलते हैं कैलेंडर

उठो, पढो, राइटिंग सुधारो
की रट लगाई माँ को पता नहीं चलता
कब उसका बेटा उसके लिए चाय बनाने लग गया
कब उसके काम में हाँथ बटाने लग गया।
" पार्लर चलोगी माँ?
पापा की बाइक दिला दो,
मै ले चलूंगा"
बेटे के पैर इतने लंबे हो गए,
मुखड़ा निहारती माँ को
पता नहीं चलता

माँ के साथ सोने की ज़िद करने वाला बच्चा
आधी रात, अपने कमरे से निकल कर
धीरे से माँ के बगल में घुस कर सो जाने वाला बच्चा,
डोरेमोन, सिन-चैन देखते-देखते कब 'बादशाह' के 'बज़्ज़' का फैन हो गया,
माँ जान नहीं पाई

'मिनी मिलेशिया' खेलते खेलते
कब स्कूल की लड़की से चैट करने लग गया,
सब शेयर करने वाले बेटे की माँ भी
कहाँ कुछ देख पाई

कब बेटा खेलते जाते हुए भी हाफ पैंट की ज़गह
जींस पहनने लग गया,
माँ को पता नहीं चला,
धूल-मिट्टी-धूप में बेफिक्र रहने वाला बच्चा
कब डीओ, सेट वेट का शौक़ीन हो गया
माँ को भनक तक न लगी

सेकंड, मिनट, घण्टे, दिन
महीने और साल
आँखों में बसा लाडला
कब किशोर बन गया,
माँ को खबर ही न हुई

अचानक एक दिन उसकी तन्द्रा भंग होती है:-
बाहर? कैसे रहेगा?
बहुत छोटा है।
बच्चा है अभी।
सारी पढ़ाई-लिखाई,
विचारों की जागरूकता,
आधुनिकता दम साध लेती है
जाग उठती है एक पारम्परिक माँ,
जब उसके साथ के लोग टोकते हैं,
" पगली, बच्चा नहीं रहा अब
लड़का हो गया है तुम्हारा बेटा।