भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
बेरोजगारों का गीत / कुमार अनुपम
Kavita Kosh से
चोरी तो करते ही नहीं मूस की तरह
चख लिया बनिया की फितरत का जल
अन्न निरा आगे अब टीस रहे दाँत
छुछुआते फिरते हैं हम बेकल
किसी लोकगीत की टेक-सा जीवन जो था
कहीं बिला गया
अँतड़ियों (दुनिया की सर्वाधिक रहस्यमय सुरंग)
में जाने ही किधर
लहर उमड़ती है
भीतर से कभी
टिंच-पिंच छवि और गैरत को झिंझोड़ती...
...मोड़ेंगे
मोड़ेंगे...अपनी ही चौहद्दी तोड़ेंगे
घोख घोख पोथन्ना पाई थी जो डिग्री
मय अच्छत-पानी
चरणों पर आपके चढ़ाएँगे
नाचेंगे मटक मटक आगे और पीछे
चाहेंगे जिस धुन में कीर्तन करेंगे
सहेंगे!
जेहि बिधि राखेंगे
वही बिधि रहेंगे!
कहेंगे
जी हुजूर...
जी हुजूर... भय है
भाग्यविधाता की जय है...जय है...!
(स्मृति की कविता की लय एक
अंतर्मन निर्भय किए है।)