बेलवा / कुमार वीरेन्द्र
यूँ तो निकले हैं भदुकन
दिशा-फ़राग़त होने, और नदी-किनारे पहुँचने ही
वाले हैं, कि कुछ डेग प टपका एक आम, और रह गया बीच रस्ते ही भद् से, अब मन तो
मन, आछ कबहुँ पाछ, उस पर भी बेलवा, लुब-लुब लुभावे, लुभावे तो देखो कि थोड़ी ही
दूर किनारा, पर जो टपका है रसे-रस, ताके जा रहे भदुकन, भीरी
ही ठिठके, और सोच रहे, उठाएँ कि न उठाएँ
कई दिन हो गए भरपेट खाए
जबसे गोड़ में
जाने का गड़ गया, जे हो
गया अइसा घाव, बीस दिन बाद भी सुखा नाहीं
रिक्शा चलाने जाते, आता दु पइसा, छौंकी जाती तरकारी, इहाँ तो जो जमा ऊ भी डाक्टरवा
चूस गया, और रोज़ रोटी-कुचनी, लेकिन आज तरिया जाएगा मन, कहेंगे अपनी पियरिया से
‘अरी सुनो, ई देखो बेलवा, इसकी तो चार फाँक ही दुनों खातिर बहुते
एगो काम करो, तनि केहू घरे से सातू पँइचा ले आओ
रात बनाओ तो लिट्टी’, फिर पियरिया को
तनि हँसाने को झूठहुँ लेने
लेगेंगे डकार
पर आम तो आम राम
वह भी टकपा गमगमा के, जैसे ही झुके, उठाने
को बढ़ाए हाथ, किनारे से चटके आ रहे, दिशा-फ़राग़त हो, एक छौंड़े ने लगाई ज़ोर से
आवाज़, 'अहो, ई का हो, ठीक नइखे ई बात...', सुनते ही भदुकन, रह गए वैसे के वैसे
पड़ गया हो सौ गगरी पानी जैसे, लजाते, लजाते-लजाते हुए सीधा
और कहते क्या, बस मुस्कुराते इतना ही कह पाए
'उठा नाहीं रहा था रे बबुआ, तनि
देख रहा था, हो
बड़ा बढ़िया पक के टपका है न !'