बेशर्म समय में बच्चे / आनंद गुप्ता
शब्दों का सीना छलनी है
रक्तरंजित एक एक अक्षर
अभी मैं लिख भी डालूँ एक कविता
नहीं पता तुम्हारा दर्द कितना कम हो जाएगा?
इस वक्त तुम्हारी मासूमीयत पर
नजर गड़ाएँ बैठें हैं दरिंदे
वे तितलियों के पंख नोच डालना चाहतें हैं
बेरहमी से मसल डालना चाहतें हैं कोमल फूल
यहाँ तक कि
वे छीन लेना चाहतें हैं तुम्हारे हिस्से का आक्सीजन
तुम्हारी सांसें
तुम्हारा बचपन
तुम्हारी हँसी
कुछ भी सुरक्षित नहीं रहा
सबसे सुरक्षित हाथों में अब
शर्म के सारे नकाब व्यर्थ है हमारे लिए
हमारा शर्म भी आज शर्मिंदा है
हम शर्मिंदा है अपने होने पर
मेरी दुनिया के बच्चों
हमें माफ करना
तुम्हें महफूज रखने में
व्यर्थ साबित हो रही हैं सारी किताबें ,
धर्मग्रंथ और कानून की मोटी-मोटी पोथियाँ
व्यर्थ सारे दर्शन और ज्ञान विज्ञान
व्यर्थ सारी प्रार्थनाएँ और नारें
व्यर्थ साबित हो रहा है तुम्हारा ईश्वर
विकास के सारे आंकड़े व्यर्थ
अपनी व्यर्थता पर
आईने को चहरा कैसे दिखलाऊँ
इस बेशर्म समय में
क्या करूँ कि थोड़ा आदमी कहलाऊँ?