बैंक / दिनेश दास
दिन-भर के बाद स्वर्ण-सिंह
प्रवेश करता है लोहे की गुफा में
थक चुके बही-ख़ाते बन्द होने लगते हैं
बाहर अभी शाम के तूफ़ान में उड़ रहा है अजस्र सोना;
स्वर्ण के झलमल में सुनहली हो उठी है शाम।
बाहरी पृथ्वी हमें अब नहीं करती इशारे
हम वणिक-युग के पहरेदार हैं
हर रोज़ का सूर्य गर्म चाय के कप में ढुलक जाता है
आधे कप में गुलज़ार हो जाता है दिन।
इस शाम को गंगा की गोद में चरते हैं स्वर्णमृग
सोने के हिरण सुवर्ण-झरने में,
वणिकयुग के लिए ये सब निहायत बेकार-सी चीज़ें हैं
अनादर के कारण वे सारे स्वर्णस्रोत
वेदना की वजह से बदल जाते हैं सीसे में!
आज किरानियों के मन
आज्ञा मानने को तैयार नहीं,
सोचता हूँ, वणिक-जगत की
यह उद्धत महाजनी .... और कब तक!
जीवन्त सोना अभी डूब रहा है
बड़ी गंगा के पानी में,
और कब तक करनी होगी
मृत-स्वर्ण की इस तरह पहरेदारी !
मूल बँगला से अनुवाद : उत्पल बैनर्जी