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बैंक की पुरानी पासबुक / प्रशांत विप्लवी

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वो बैंक की कोई पुरानी पास-बुक थी
आवरण पर पिता का नाम
गाँव का पता
और पिता को चिन्हित करने के लिए अंकित कोई विषम संख्या
लम्बे अरसे से माँ की पोटली में बंधी
कुछ मुड़ा-तुड़ा-सा पास-बुक
इनदिनों मेरे बेटे के हाथ लग गया है
नगण्य राशि लिए ये खाता
जिनमें उपार्जन की असमर्थता साफ़ झलक रही
जमा से ज्यादा टुकड़ो में निकासी हुई
बेटे का कौतुहल
अंकित नीले और लाल रंगों में है
मेरी नज़र बची राशि पर टिकी है
और अंतिम तारीख पर भी
उनकी बेचैनी इन्ही दिनों बढ़ गई थी शायद
एक द्वंद्व – निकासी और खाते के खात्मे के बीच का था
जो अनिर्णीत रहा होगा मंहगाई के कारण
कोरे पन्नों पर
बेटे ने आंक दिए हैं कुछ बेचैन मानवीय आकृति
रंगों की ढेर से चुना है उसने
सिर्फ और सिर्फ नीला रंग
आसमान की असीमित गहराई से
उभर आती है पिता की कोई तस्वीर
पेन्सिल की तीक्ष्ण रेखाओं का सहारा लिए
हमारी इच्छाओं से बढ़कर
उनका भविष्य नहीं रहा होगा
निकासी किसी पर्व का उल्लास रहा होगा
निकासी बहन की कोई मंहगी सौगात रही होगी
निकासी माँ की दवाई रही होगी
निकासी भैया के कॉलेज की फ़ीस रही होगी
निकासी मेले से ली हुई मेरे जिद्द का कोई खिलौना रहा होगा
निकासी पिता की मज़बूरी रही होगी
निकासी हमारी ख़ुशी रही होगी
पास-बुक का लेन-देन
मेरे पिता का जीवन रहा होगा
जहाँ दर्ज था हमसे जुडी उनका अंकित संघर्ष