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बैरन हो गयी निंदिया / आनंद कुमार द्विवेदी
Kavita Kosh से
रात एक बजे वाली करवट
बोली नहीं कुछ
सुलगती रही
अंदर ही अंदर
मगर फिर
डेढ़ बजे वाली ने
चुपचाप आती जाती साँसों के कान में
भर दिया न जाने कैसा ज़हर
अंदर जाती हर साँस ने नाखूनों से
खरोंचना शुरू कर दिया दिल को
बाहर आती साँस को हर बार
पीछे से धक्का देना पड़ रहा था
खुली पलकों ने
कातर होकर
बूढ़े बिस्तर के शरीर पर आयी
झुर्रियों को देखा
बिस्तर ने
करवट की ओर देखा
करवट ने घड़ी की ओर
घड़ी ने आसमान की ओर
आसमान ने चाँद की ओर
और
चाँद ...?
बस्स्स्स !
तुम्हारा जिक्र आते ही
मैं नाउम्मीद हो जाता हूँ
हरजाई साँसें
ये सारी बात
नहीं समझती न ...