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बोध की ठिठकन- 18 / शेषनाथ प्रसाद श्रीवास्तव

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अक्सर तो नहीं
पर कई दफा ऐसा होता है
जब मेरे पासअकूत खिले क्षणों का
संयोग जुट जाता है.

ये क्षण
सूरजमुखी फूलों की रश्मि-सजगता
और कदंब फूलों के रोमांच-से
लदे फदे होते हैं.

मेरे चित्त में
क्षण भर को ही सही
पर मुक्त पलों का आह्लाद
जाग उठता है
मेरी आँखों के कोरकों में
करुण स्रावों का गीलापन
मुखर हो उठता है
और कुछ अतींद्रिय बोध का
दृष्टि-द्वार खुल जाता है
मेरे अस्तित्व की धारा
तुम्हारे निकट से
बह पड़तीहै.
मगर हाय री बिडंबना
इन क्षणोंके टिकाव
थिर नहीं होते
न जाने कहाँ से पलक झपकते ही
बादल का कोई मांसल टुकड़ा
मेरे आकाश में सरक आता है
जब मेरी अनुभूति में खो चुका
धरती का स्पर्श
वापस लौट आता है
और मेरी हेह में चुभती कीलों का दर्द
मेरे चित्त को स्याह कर जाता है.

मेरे होने की खो गई इयत्ता
फिर रूप धारण करने लगता है
मेरे अनुभव का रेखांकन
अभिव्यक्ति की अभीप्सा में
अँट नहीं पाता
तब मैं अनुभव नहीं
अनुभव की किसी स्मृति-रेखा की
एक चिप्पी हो जाता हूँ