बोध की ठिठकन- 3 / शेषनाथ प्रसाद श्रीवास्तव
तुमसे जुड़ना
एक अलग ही आयाम में
प्रवेश पाना है.
तुम्हारे होने की
दीर्घाती दीप्ति-छुअन
मेरे पोरों में कुछ थिराती है.
क्षितिज के समान्तर
दौड़ती आकांक्षाएँ
कभी मुझसे एकाकार थीं
आज उनके पदचिन्हों की छाप
मैं गिन सकता हूँ
महसूस सकता हूँ.
मेरी अस्मिता के गहन तलों से
उदित होता कोई तटस्थ
जो अब प्रतीति नहीं रहा
मुझे तुम्हारी सत्ता से जोड़ने में
संलग्न है.
इतना मुझे भान है
मेरे पोरों को बेधती
तुम्हारी सुवास
कहीं पास ही से उठती है
मगर अभी अंतरिक्ष निरभ्र नहीं है.
धुंध में
दीए की लौ का
मद्धिम-सा कलात्मक उभार
मुझे झलकता है.
सर पर पड़ती
परिवेश के हथौड़े की चोट
उसमें टिमटिमाहट जोड़ती है
पर तुम्हें भी भान होगा
पलकों की अपलक वृत्ति पर
मैं सवार हूँ.
तुम्हारे आयाम में
मैं प्रवेश पा सकूँगा
इस संभावना का अर्ध्य
अपनी अँजुरी में सजाए
अधमुँदीआँखों का ध्यान साधे हूँ