बोलो कैसे आज कहोगे / सरोज मिश्र
बिखरी अलकें, बोझिल पलकें,
नयन कोर से आँसू छलकें,
अन्तिम सफ़र हेतु जब तत्पर,
चार क़दम आये तब चलकर।
खुली हुई पुस्तक है चेहरा, घर के बन्द किवार नहीं।
बोलो कैसे आज कहोगे तुमको मुझसे प्यार नहीं।
बासन्ती मौसम जब आये,
नयन कमल तुमने तब मीचे।
जब जब दीअवसर ने दस्तक
हाँथ तुम्ही ने पीछे खींचे।
कल बाहों में तुम अम्बर को
भरने का विश्वाश लिये थे
ये कैसा दुर्योग धरा भी,
आज नहीं पैरों के नीचे।
कब के सोये अब हो जागे,
टूट गए जब कच्चे धागे,
जिसे बुलावा नन्दन वन से,
उसको क्या दहके चन्दन से।
सोंच रहे थे तुम दुनिया के पार कोई संसार नहीं।
कब तक बैठी रहती मैना, खोले ही जब द्वार नहीं।
बोलो कैसे आज कहोगे तुमको मुझसे प्यार नही।
संकेतों की लिपियाँ हमने,
लिखीं मगर तुम पढ़ न पाये।
तुमको केवल हाँ कहना था
शब्द अकेला गढ़ न पाये।
हम तो पूजन थाल सजाकर
रहे प्रतीक्षित ड्योढ़ी पर,
तुम्हीं सीढ़िया सही समय पर
मनमन्दिर की चढ़ न पाये।
तन का तर्पण मन का अर्पण
व्यर्थ समपर्ण, बिखरा दर्पण,
झरे पात सब गन्ध उड़ गई,
पतझर की जब नज़र पड़ गईं।
भरे गले से कहना अब ये, रुक जाओ स्वीकार नहीं।
मेरा हक़ था मन ही पर बस,
माटी पर अधिकार नही।
बोलो कैसे आज कहोगे तुमको मुझसे प्यार नही।